सामाजिक

बीती ताहि बिसार दे

हमारे जीवन में बहुत सी बातें ऐसी होती हैं या घटनाएं घटती ही हैं,जिसकी स्मृति मानस पटल पर अनायास ही घूम जाती है, जिसको भूल जाना बेहतर होता है। हालांकि ये सब इतना आसान भी नहीं होता, लेकिन यादों में समेटे रहने से जीवन की खुशियां दूर से ही हमें मुंह चिढ़ाती हैं। मेरे जीवन में ऐसे वाकयों की कमी नहीं है, जिसके बारे में सोच कर भी अपराध बोध होता है, हालांकि इसके लिए मैं संबंधित के बारे में सोचने के बजाय इतनी दूरी बनाना बेहतर मानता हूं, जैसे हमारे बीच कभी कुछ जान पहचान तक न ही न रही हो। दो साल पहले एक वरिष्ठ शिक्षक/कवि/ साहित्यकार को मैंने एक साहित्यिक पटल पर महत्वपूर्ण पद देने की संस्तुति कर दी। संस्थापक महोदय ने उस पर अपनी स्वीकृति देते हुए मनोनयन पत्र जारी कर दिया। प्रत्युत्तर में उन महोदय ने मेरे बारे में संस्थापक जी को काफी कुछ कहा और भरमाने का प्रयास किया, यहां तक कहा कि आप श्रीवास्तव जी को सिर पर बैठा रहे हैं, जब संस्थापक जी ने सख्ती दिखाते हुए उन्हें समझाया कि हम दोनों के बीच में आप कुछ न ही कहें तो ही अच्छा है,ये पद भी उन्हीं की कृपा से आप को मिला है। मैं उन्हें तब से जानता हूं,जब वे पटलों पर लगभग न के बराबर थे। हमारे संबंध पटल से इतर भी हैं, लिहाजा आप नसीहत न ही दें तो ही अच्छा है, मुझे भी इतनी अक्ल है कि कौन कैसा है, किससे संबंध कितना रखना है और कब तक रखना है।आप वरिष्ठ हैं, तो अच्छा है कि अपनी वरिष्ठता का मान सम्मान संजोकर रखें। कुछ माह वे पदाधिकारी बने रहे और फिर पद छोड़ दिया।इस बीच में वे अपनी पूरी ताकत से मुझे नीचा दिखाने का हर संभव प्रयास करते रहे, और मुझे जानने वाले लोग उन्हें आइना दिखाते रहे, जब उनकी दाल नहीं गली तब विवश होकर थकहार कर बैठ गए। और इस तरह मौन हो गए कि आज पटलों पर कभी कभी ईद के चांद की तरह ही दिखते हैं। आप सबको ताज्जुब होगा कि उन महोदय से केवल केवल एक बार ही आभासी बातचीत महज एक डेढ़ मिनट की ही हुई थी। लेकिन पटलों के माध्यम से मैं उन्हें जानता था। ईश्वर उन्हें स्वस्थ सानंद रखें। लेकिन उसके बाद से वे महोदय मेरे जेहन से “बीती ताहि बिसार दे” की तर्ज पर हमेशा के लिए विलुप्त हो चुके हैं।

*सुधीर श्रीवास्तव

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