कविता

हम भी बदल न जायें

यह सही है कि

आज सब कुछ बदल रहा है,

रहन, सहन, नीति, नियम, सिद्धांत

आचार, विचार, संस्कार बदल रहा है।

घर, परिवार, समाज बदल रहा है

रिश्तों का सहकार बदल रहा है

आपसी रिश्ते और रिश्तों का विश्वास घट रहा है,

सबसे करीबी रिश्तों में भी

अब संदेह का दौर बढ़ रहा है।

क्या क्या कहें हम आज, अब तो

मुँह खोलने में भी डर लगता है,

माँ, बाप, भाई, बहन, बेटी, बेटा, पति, पत्नी को भी

अब इन रिश्तों से ही डर लगता है,

कौन कब अपना शैतानी रुप दिखा दे

कह पाना बड़ा मुश्किल हो रहा है?

पर जो कल तक असंभव सा था

आज वो सब संभव हो रहा है

हमें ही नहीं आपके साथ साथ 

दुनिया, समाज को भी आइना दिखा रहा है।

क्या क्या बदल रहा है?

हम सबको साफ साफ दिख रहा है,

ऐसे में हम भी बदल न जायें

यह कहने में भी संदेह हो रहा है,

और असंभव भी नहीं लग रहा है

क्योंकि आज तो जब सब कुछ बदल रहा है

तब हम भी बदल न जायेंगे

ये विश्वास से नहीं कहा जा रहा है,

क्योंकि खुद के बदल जाने से बचने के लिए

बहुत संघर्ष करना पड़ रहा है। 

*सुधीर श्रीवास्तव

शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल, बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002 व्हाट्सएप मो.-8115285921