कविता
सुनो न
जिंदगी कुछ कहना चाहती है
बस अब थमना चाहती है
थक जाने की मनाही है
क्योंकि राह अभी कहाँ पायी है
जुस्तजू है कुछ पाने की
दिल्लगी यूँ ही बुझाने की
अक्षय है प्रेम गर फिर नफरत कैसी
क्या ये भी झूठी गवाही है
क्यों तुमने दुनिया बनाई है
क्यों बोते हो झूठ का बीज
मिट्टी बहुत उपजाऊ है
जो बोया है वो काटना पड़ेगा
फिर कैसे ये जीवन चलेगा
प्रेम की फसल माना कि कुछ नहीं देगी
पर तुम्हारी रूह को डरने नहीं देगी
काँटों के सफर में आराम कैसा
फूलों की चाह में मखमल कैसा
न ये जिंदगी तुम्हारी है न मेरी
फिर दिलों में ये हवस कैसी
तेरी शान में ये दीवानगी होगी
लेकिन कल यही दूसरी तस्वीर होगी
इबादत कर ले न अब कल का क्या पता
शायद आज की रात आखिरी होगी ।
— वर्षा वार्ष्णेय