साहित्य और सामाजिक सरोकार
“साहित्य में समाज प्रतिबिंबित होता है। तत्कालीन सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक परिस्थितियों के अनुरूप ही किसी काल के साहित्य का निर्माण होता है।” – श्री गुलाब राय
साहित्य की इन्हीं विशेषताओं के कारण इसे ‘समाज का दर्पण’ कहा जाता है। साहित्य समाज की उन्नति-अवनति का साक्षी होता है। साहित्य मात्र समाज को ही प्रभावित नहीं करता वरन वह स्वयं समाज से प्रभावित हुए बिना नहीं रहता। साहित्य से ही किसी राष्ट्र की सभ्यता और संस्कृति , वहाँ के महापुरुषों के विचार, प्राचीन रीति-रिवाज,रहन-सहन तथा परंपराओं आदि की जानकारी प्राप्त होती है।
साहित्य शब्द की उत्पत्ति दो शब्दों के योग से हुई है। प्रथम शब्द है- ‘स’ जिसका अर्थ होता है साथ-साथ जबकि दूसरा शब्द है- ‘हित’ जिसका अर्थ है कल्याण, अर्थात साहित्य ज्ञान राशि के उस संचित कोष का नाम हैं, जिसमें लोक-कल्याण निहित होता है।इसीलिए साहित्य को ‘सत्यं, शिवं, सुंदरम’ कहा जाता है।साहित्य में सत्य की साधना होती है, शिवत्व की कामना होती है तथा साथ ही सौंदर्य की अभिव्यंजना भी।उपन्यास सम्राट प्रेमचंद ने साहित्य के संबंध में अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा था “जिस साहित्य से हमारी रुचि न जागे, आध्यात्मिक और मानसिक तृप्ति न मिले, हम में शक्ति और गति पैदा न हो, हमारा सौंदर्य-प्रेम न जागे ,जो हम में सच्चा संकल्प और कठिनाइयों पर विजय पाने की सच्ची दृढ़ता उत्पन्न न करें, वह हमारे लिए बेकार है ,वह साहित्य कहलाने का अधिकारी नहीं।”
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के शब्दों में “साहित्य सामाजिक मंगल का विद्यालय है। यह सत्य है कि व्यक्ति विशेष की प्रतिभा से ही साहित्य रचित होता है किंतु और भी अधिक सत्य यह है कि प्रतिभा सामाजिक प्रगति की ही उपज है।”
साहित्य और समाज में अन्योन्याश्रित संबंध होता है । प्रत्येक साहित्यकार अपनी रचना को समाज में चल रही परंपराओं और मान्यताओं के वर्णन द्वारा ही सजाता-सँवारता है। वाणी के डिक्टेटर कबीर दास जी ने अपने समय की सामाजिक कुरीतियों,अप्रासंगिक मान्यताओं और आडंबर को साहित्य का विषय बनाया तो उपन्यास सम्राट प्रेमचंद ने अपने उपन्यासों और कहानियों में किसी न किसी सामाजिक समस्या को उभारा है।फणीश्वर नाथ रेणु जी ने ‘मैला आँचल’ और ‘परती परिकथा’ में कथ्य को जिस भाव-भूमि पर प्रस्तुत किया है,वह साहित्य के सामाजिक सरोकारों को ही रूपायित करता है।साहित्य का उद्देश्य मात्र मनोरंजन नहीं होता। समाज को एक दिशा प्रदान करना भी होता है। मैथिलीशरण गुप्त जी के शब्दों में-
केवल मनोरंजन न कवि का कर्म होना चाहिए। उसमें उचित उपदेश का भी मर्म होना चाहिए।।
सदियों से साहित्य अपने इस गुरुतर दायित्व का निर्वहन बखूबी करता आ रहा है। साहित्य में व्यक्ति और समाज को प्रभावित करने की अपार क्षमता होती है। बिहारी जी ने जो दोहा विलासरत राजा जयसिंह को कर्तव्य बोध कराने के लिए अन्योक्ति अलंकार में लिखा था, राजा ने दोहे में निहित संदेश को समझा और राजकाज में पुनः प्रवृत्त हो गए-
नहिं पराग नहिं मधुर मधु नहिं विकास इहि काल।अली कली ही सों बिंध्यो, आगे कौन हवाल।।
आदिकवि महर्षि वाल्मीकि की वाणी आज तक हमारा पथ-प्रदर्शन करती आ रही है। महाकवि कालिदास की रचनाएँ जन-मानस को उद्वेलित करने में आज भी सक्षम हैं।हिंदी साहित्य के आदिकाल से लेकर आधुनिक काल तक जो भी साहित्य रचा गया है वह अपनी युगीन परिस्थितियों की उपज तो है,इसमें कोई दो राय नहीं हैं पर उसमें सामाजिक सरोकार का अभाव है, ऐसा नहीं कहा जा सकता है। प्रायः ये आरोप लगाया जाता है कि भक्ति काल के कवियों ने मात्र अपने -अपने आराध्य का स्तुति गान ही किया है,उनकी कृतियों में समाज उपेक्षित रहा है,पूरी तरह सही नहीं है। किसी भी काल में कवि समाज को उपेक्षित कर ही नहीं सकता क्योंकि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और समाज में घटित घटनाओं से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता।गोस्वामी तुलसीदास जी का एक छंद उदाहरणार्थ प्रस्तुत है-
किसबी किसान कुल बनिक भिखारी भाट,चाकर चपल नट चोर चार चेटकी।
पेट को पढ़त गुन गढ़त चढ़त गिरि ,अटत गहन- गन अहन अखेटकी।
ऊँचे-नीचे करम धरम अधरम करि, पेट ही को पचत बेचत बेटा बेटकी।
इस छंद में गोस्वामी जी ने बेकारी और भुखमरी से त्रस्त जनता का जो मार्मिक चित्र खींचा है ,वह उनके सामाजिक सरोकार को ही प्रतिबिम्बित करता है।
पंत जी जिन्हें प्रकृति की सुकुमार कल्पना का कवि कहा जाता है,उन्होंने ‘वे आँखें’ कविता में युग-युग से शोषित किसान की स्वाधीनता के बाद के जीवन की दुर्दशा का जो चित्र खींचा है वह यह सिद्ध करता है कि वे जितने अच्छे प्रकृति के चितेरे थे, समाज के उतने ही सजग प्रहरी भी थे-
अंधकार में गुहा सरीखी उन आँखों से डरता है मन,
भरा दूर तक उनमें दारुण दैन्य दुख का नीरव रोदन।
वह स्वाधीन किसान रहा अभिमान भरा आँखों में इसका,
छोड़ उसे मँझधार आज संसार कगार सदृश बह खिसका।
सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ जी की ‘भिक्षुक’ और ‘वह तोड़ती पत्थर’ कविताएँ सामाजिक सरोकार का जो जीवंत चित्र उपस्थित करती हैं, उसे किसी के द्वारा अनदेखा नहीं किया जा सकता है और उन कविताओं के उल्लेख के बिना साहित्य के सामाजिक सरोकार की बात पूरी भी नहीं मानी जा सकती।
नई कविता की सशक्त हस्ताक्षर निर्मला पुतुल जी ने अपनी कविता ‘आओ मिलकर बचाएँ’ में संथाली आदिवासियों के समाज के सकारात्मक और नकारात्मक पक्षों का चित्रण करते हुए उन चीज़ों को बचाने का आह्वान किया है जो स्वस्थ सामाजिक-प्राकृतिक वातावरण के लिए आवश्यक है।यह कवयित्री के सामाजिक सरोकार को ही प्रदर्शित करता है-
अपनी बस्तियों को
नंगी होने से/शहर की आबो-हवा से बचाएँ उसे
बचाएँ डूबने से/पूरी की पूरी बस्ती को/हड़िया में।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि समाज के विचारों, भावनाओं और परिस्थितियों का प्रभाव साहित्यकार और उसके साहित्य पर निश्चित रूप से पड़ता है।साहित्य में मानव समाज के सुख-दुख ,आशा- निराशा ,उत्थान-पतन आदि का चित्रण इसका परिचायक है।जिस साहित्य का अपने समाज से जितना अधिक आदान-प्रदान होगा,वह साहित्य उतना ही सजीव,संवेदनात्मक एवं प्रभावशाली होगा।
डाॅ बिपिन पाण्डेय