लघुकथा

मौन होते बुजुर्ग

कहते हैं वक्त अच्छे अच्छों को मौन कर देता है। कुछ ऐसा ही वरिष्ठ क्रिमिनल लायर आशुतोष जी के साथ भी हुआ। कोर्ट में अपने अकाट्य तर्कों से विरोधियों का मुंह बंद कर देने वाले आशुतोष जी पहले तो पत्नी की मृत्यु से टूट ही चुके थे, रही सही कसर उनकी बीमारी ने पूरी कर दी। दैनिक जीवन भी प्रभावित हो गया।सब कुछ बेटे बहू की दया पर निर्भर हो गया।

उनका आठ वर्षीय पोता कभी कभार उनसे बातें करता, अपनी बालसुलभ चंचलता से अपने दादा को कुछ पल का सूकून जरुर दे जाता था। ऐसा तभी हो पाता था,जब उसके मम्मी पापा घर पर नहीं होते थे।

एक दिन आशुतोष जी की एक जूनियर रवि उनके घर आया। आशुतोष जी रवि के लिए गुरु ही नहीं अभिभावक भी थे। रवि को देखकर आशुतोष जी की आंखों से बेतहाशा आंसू बहने लगे। रवि को उनकी पीड़ा का अहसास हो रहा था। बड़ी हिम्मत करके उसने आशुतोष जी से अपने साथ घर चलने का आग्रह किया, तो बिना किसी देरी के उन्होंने मौन स्वीकृति दे दी।

रवि तुरंत घर से बाहर आया और एक ई रिक्शा लेकर आ गया। आशुतोष जी को सहारा देकर रिक्शा पर बैठाया और फिर खुद भी उन्हें पकड़कर बैठ गया।

पोते ने पूछा भी तो आशुतोष बाबू ने उसके सिर पर हाथ फेर कर मौन आशीर्वाद दिया। फिर ई रिक्शा आगे बढ़ गया। रास्ते में ही रवि ने जिला जज और वकील संगठनों के पदाधिकारियों को भी अवगत करा दिया।

जब वह घर पहुंचा तो जज साहब, वकील संगठनों के पदाधिकारियों सहित नगर कोतवाल वहां पहले से उपस्थित थे। आशुतोष जी की सहमति से सबने रवि के साथ उनके रहने पर प्रसन्नता व्यक्त करते हुए हर तरह से सहयोग का आश्वासन दिया। आशुतोष जी अब भी मौन थे, लेकिन उनकी आंखों से बहते आंसुओं में कृतज्ञता संग सूकून का भाव था। 

*सुधीर श्रीवास्तव

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