कविता

खुला मैदान

भरी सभा में साड़ी खींचता दुशासन
बेबस असहाय द्रौपदी
आर्तनाद कर भरी सभा से गुहार करती,
पर मौन थे उसके पांचों पति
लज्जा से सिर झुकाए असहाय से,
भीष्म पितामह, महात्मा विदुर, गुरु द्रोणाचार्य
और राज्य के दिग्गजों संग महाराज धृतराष्ट्र।
इनकी आंखों के सामने होता रहा
एक अबला का चीरहरण।
पर सबकी अपनी अपनी विवशता थी
शायद द्रौपदी यह बात नहीं जानती थी
और जिंदा मुर्दों से उम्मीद भरे कातर स्वर में
रक्षा की गुहार कर रही थी।
पर जल्दी ही उसे समझ में आया
तब उसने पुकारा अपने भ्राता कृष्ण को
पूरे विश्वास के साथ।
और फिर तोकृष्ण ने भी देर नहीं लगाया
आकर द्रौपदी का चीर बढ़ाया
बहन की लाज बचा अपना कर्तव्य निभाया,
भरी सभा को आइना दिखाया।
जबकि उस समय भरी सभा में
पांडवो के अलावा भारी भीड़ खड़ी थी,
पर लगता था कि जैसे किसी को क्या पड़ी थी।
ठीक वैसे ही जैसे आज दुनिया समाज में हो रहा है
धर्म, कर्तव्य, मर्यादा का खुल्लम खुल्ला
चहुंओर चीर हरण हो रहा है।
और हम सब अपनी आंखें फेर आगे बढ़े जा रहे हैं
अपने ही कर्तव्य, शील सभ्यता, मर्यादा का
बेशर्मी से खुल्लम खुल्ला अपमान कर रहे हैं।
द्रौपदी के चीर हरण को देखकर भी
हम नजर अंदाज कर रहे हैं
सिर्फ आरोप लगाकर अपना कर्तव्य निभा रहे हैं
हम खुद को कृष्ण के भक्त कहते हैं
पर कृष्ण की राह पर एक कदम भी
चलना गंवारा तक नहीं करते हैं
और अपनी बहन बेटियों के लिए
दुर्योधन को खुला मैदान दे रहे हैं।

*सुधीर श्रीवास्तव

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