कमलिनी
जन्म लेते ही मर क्यों ना गई करमजली । आते ही बड़े भाई को खा गई , छोटे भाई पर इसकी वक्र दृष्टि पड़ते ही वह पोलियो ग्रस्त हो गया ।
व्यापार मंदा हो गया और तो और घर में आग तक लग गई । पता नहीं किस घड़ी में इसका जनम् हुआ था, कुछ भी अच्छा नहीं हो रहा है घर में ।
ऐसे ताने एवं उलाहने सुनते हुए सोलह बसंत उसने पार कर लिये ।
तानें आज भी जारी हैं, वक्त और हालात के साथ व्यंग्य -बाण बदल गये ।
अभी अभी दादी चिल्ला रही थी माँ पर-
“अरी…ओ…किसना की घरवाली; मैं तो कहते कहते थक गई, बेटी को क्या खिलाती हो जो, उसका रूप और जवानी दिनों-दिन निखरता ही जा रहा है ।”
“क्या सोच कर तुमने इसका नाम कमलिनी रखा, भगवान जाने, इसके रंग-ढंग तो कुलक्षिणी जैसा है ।”
यह सुनते ही कमलिनी दर्पण के सामने खड़ी होकर स्वयं को निहारने लगी।
नहीं…नहीं मैं खूबसूरत नहीं हूँ, दादी ही तो हमेशा कहती थी, ललाट लोढे सा, नाक चीलम सी, होठ लटके हुए, ठीक ही तो कहती है दादी ।
अपने बालों पर हाथ फिराते हुए वह मन ही अपने संकल्प दूहराने लगी ।
मुझे पढ़ना है , बेटी नहीं बेटा बन कर माँ पापा का बुढापा संवारना है ।
खूबसूरत हूँ या बदसूरत, हूँ तो इंसान, इंसानियत का तकाजा यही है कि, पोलियो ग्रसित भाई को अपने पैरों पर खड़ा करूं । सशरीर स्वस्थ हूँ इतना ही काफी है, असल खूबसूरती ईश्वर प्रदत्त है ।
ऐसा सोचते ही पुनः चिर-परिचित मुस्कान होठों पर छा गई ।
माँ कमरे में प्रवेश करते हुए कहने लगी –
“बिटिया दादी की बातों को दिल पर नहीं लिया करो…आगे कुछ कहती उससे पहले ही कमलिनी ने जवाब दिया ।
“माँ आपने मेरा नाम कमलिनी कुछ सोच कर ही रखा होगा, उपनामों की बरसात सदा होती है, फिर भी अपना नाम याद रखती हूँ ।”
“ माँ मेरी असली ताकत तो आप हैं, आपके आशीर्वाद से सभी एक दिन जरूर मुझे लक्ष्मी कहेंगे । क्षणिक दुख होता है, जन्म और मृत्यु पर आज भी हमारा वश नहीं चलता है ।
बेटा और बेटी में आज भी फर्क करते हैं परिवार के बाकी सदस्य, आपको छोड़कर ।”
“ बिटिया; जैसे भगवान भाष्कर को, गंगा जी को कई नामों से पुकारा जाता है,उसी तरह लोग तुम्हें कुछ भी कहें तुम मेरी नज़र में सदा लक्ष्मी ही रहोगी ।”
— आरती रॉय