गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

हक़ीक़त से कोई जुदा हो न जाए,
ये डर भी है सबको पता हो न जाए।

भटककर ख़ुदी अपने भीतर की गलियाँ,
यहाँ आदमी ग़ुमशुदा हो न जाए।

इसी कश्मकश से है पाला उसे भी,
कहीं दिल में बच्चा बडा हो न जाए।

झूठों की बातों में आ सच से कोई,
ग़लत कोई फिर फैसला हो न जाए।

रहकर के संग आईनो के वो पत्थर,
कहीं एक दिन आईना हो ना जाए।

बचाकर के नज़रें निकलता हूँ घर से,
कहीं ‘जय’ से फिर सामना हो न जाए।

— जयकृष्ण चांडक ‘जय’

*जयकृष्ण चाँडक 'जय'

हरदा म. प्र. से