सत्ता की जुगलबंदी
कैसी सोच अपनी है किधर हम जा रहें यारों
गर कोई देखना चाहें बतन मेरे बो आ जाये
तिजोरी में भरा धन है मुरझाया सा बचपन है
ग़रीबी भुखमरी में क्यों जीबन बीतता जाये
ना करने का ही ज़ज्बा है ना बातों में ही दम दीखता
हर एक दल में सत्ता की जुगलबंदी नजर आयें .
कभी बाटाँ धर्म ने है कभी जाति में खो जाते
क्यों हमारें रह्नुमाओं का, असर सब पर नजर आये
ना खाने को ना पीने को ,ना दो पल चैन जीने को
ये जैसा तंत्र है यारों , जल्दी से गुजर जाये
— मदन मोहन सक्सेना