अविश्वास क्यों?
ऐसा ही तो होता है
जब हम खुद को ईश्वर के भरोसे
पूरे विश्वास के साथ छोड़ देते हैं,
ईश्वर हमारे अनुरुप मार्ग खुद
पहले से तय करके रखते हैं
हर कठिनाई का हल पहले से सुनिश्चित रखते है।
तब हमें खुद ही आश्चर्य होता है
लेकिन हम रोते कलपते हाय हाय करते हैं
अब क्या होगा? सोचकर परेशान होते हैं,
बस अपने आस पास और अपनों की ओर देखते हैं।
इष्ट मित्रों, शुभचिंतकों से ही आस रखते हैं,
और नाउम्मीद होने पर हैरान परेशान होते हैं,
पर उस सर्वशक्तिमान की ओर कहां देखते हैं
उस पर विश्वास तक नहीं कर पाते हैं।
यह जानकर भी कि करने वाला एकमात्र वो ही है
बाकी तो सब निमित्त मात्र हैं
और उसकी इच्छा के अनुसार ही सब करते हैं
आखिर होता तो वही है जो वो चाहता है,
उसकी मर्जी के बिना पत्ता तक कहाँ हिलता है?
फिर हम खुद को पहले ही उसे क्यों नहीं सौंप देते हैं?
पहले ही उस पर भरोसा क्यों नहीं कर पाते हैं
जब थकहार और हर ओर से निराश हो जाते हैं
तब ही उसके भरोसे खुद को क्यों छोड़ते हैं?
यह बात पहले क्यों नहीं समझते हैं?
क्यों हम खुद को ही ईश्वर मान बैठते हैं?
क्यों हम गुमराह होकर हैरान, परेशान होते हैं?