कविता

कल्पना के राम

आज रात राम जी मुलाकात हो गई
मेरी तो जैसे लाटरी लग गई,
मैंने रामजी को नमन किया,
उन्होंने बड़े प्यार से मेरा हालचाल पूछा
और अनंत आशीर्वाद देकर मंत्रमुग्ध कर दिया।
सच कहूँ तो राम जी का आना अप्रत्याशित नहीं था
उन्होंने अपने पूर्व जन्म में मुझसे वादा किया था,
मेरे परिवार को दर्शन देने का आश्वासन दिया था
जब वो वन गमन कर रहे थे
और रास्ते में पड़ रहे
मेरे झोंपड़ेनुमा महल को नजरंदाज कर गये थे।
तब मुझे बड़ा दुख हुआ था
आहत होकर मैंने उनका पीछा भी किया था,
और उनसे शिकायतों का अंबार लगा दिया था।
अब राम जी तो ठहरे बड़े भोले भाले
अयोध्या वापसी के समय
मेरे महल पर आने का वादा जो किया था,
पर वापसी में फिर भूल गए
या अपने साथ भीड़ के कारण
मुझसे मिलने में संकोच कर गए।
जो भी रहा इतने दिनों बाद ही सही
आखिर आज तो रामजी आ ही गये।
उन्होंने अपना वादा तो निभाया,
विलंब के लिए खेद भी जताया,
सच कहूँ तब मैं इतना शर्माया,
कि क्या कहूँ समझ नहीं आया।
फिर मैंने ही बात को आगे बढ़ाया
अपने मन में वर्षों से उठते सवाल
उनसे एक साँस में कह सुनाया।
उन्होंने बड़े शांत, संयंत भाव से मुझे देखा
फिर मुझे समझाया ऐसा ही होता है वत्स
और ऐसा आगे भी होता ही रहेगा,
कल तक जो मुझे काल्पनिक कह रहे थे
मेरे मंदिर निर्माण पर अब भी सवाल उठा रहे हैं,
आज वे भी मेरे दरबार में आने के लिए
निमंत्रण का इंतजार कर रहे हैं।
साथ ही आरोपों की जैसे तैसे बौछार कर रहे हैं
पर मन के चोर को वे चाहे जितना छिपा लें
तुम खुद ही देख लो
वे सब बड़े असफल हो रहे हैं।
मैं तो वनवास भी खुशी खुशी गया था
अपने जन्मभूमि और मंदिर के लिए भी मौन खड़ा था,
हर किसी को अपने अपने अनुरुप
सवालों का अब तो जवाब मिल गया
तुम सबके विश्वास का परिणाम सामने आ गया।
पर जिन्हें हम काल्पनिक लगते थे
वे अब खुद काल्पनिक होने की दिशा में बढ़ रहे हैं,
पर दंभ इतना कि आंख बंद कर अंधे बन रहे हैं
फिर भी सच्चाई को नकारते जा रहे हैं,
अंधे कुंए में खुद गिर रहे हैं,
बकरी की आड़ में खुद को महावत बता रहे हैं।
अपने बर्बादी की नींव मजबूत कर रहे हैं,
पुरखों की खोदी खाई में गिरकर दफन होने के लिए
खुद ही बहुत उतावले हो रहे हैं।
अपने काल्पनिक राम की माया आज भी
वे तनिक समझ नहीं पा रहे हैं,
भव्य मंदिर को देखकर भी कुछ नहीं समझ पा रहे हैं,
क्योंकि वे सब तो खुद को राम समझ रहे हैं
बाकी सब तो उन्हें रावण के वंशज लग रहे हैं
जबकि तुम खुद ही देखो, मैं क्या कहूँ?
हर किसी सब साफ़ साफ़ दिख रहा है,
आपस में मेल मिलाप की आड़ में
वे सब अपने अपने अस्तित्व के लिए लड़ रहे हैं,
और आज भी मुझे कहाँ समझ रहे हैं?
यह और बात है कि खुद तो गुमराह हो ही रहे हैं
और मुझे भी गुमराह करने का असफल प्रयास,
दुनिया को दिखाने के लिए अभी तक कर रहे हैं
बुझते दिए की लौ बन फड़फड़ा रहे हैं,
अपनी कल्पना के राम को भी नजरंदाज कर रहे हैं।
मैं किंकर्तव्यविमूढ़ सा उन्हें देखता रहा
कुछ बोलने की हिम्मत न कर सका
बस हाथ जोड़े चुपचाप खड़ा था।
राम जी क्या कह रहे हैं बस यही विचार कर रहा था,
यह और बात है कि बिना राम जी के भी
मैं राम जी को अपने सामने देख रहा था,
और खुद को सबसे ज्यादा भाग्यशाली मान रहा था,
जय श्री राम जय श्री राम बोल रहा था
सीताराम सीताराम का मंत्र जप

*सुधीर श्रीवास्तव

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