स्वास्थ्य

भारतीय ज्ञान परम्पराओं में छुपे हैं नोबेल सम्मान के ढेरों विषय

भारतवर्ष के यशस्वी प्रधानमंत्री परम आदरणीय मोदीजी ने भारत की स्वतन्त्रता के अमृतोत्सव पर सार्वभौमिक हितार्थ पूरे विश्व में पारम्परिक चिकित्सा की पुनर्प्राणप्रतिष्ठा का शंखनाद किया है. यदि हम अपने पारम्परिक ज्ञान पर विश्वास कर उनके आधार पर शोध करते तो उपवास, जैविक घड़ी और कैंसर के कारण की खोज पर मिलें नोबेल पुरस्कार हमें मिलते. हम चुकते गए परन्तु अभी भी समय है, अष्टांग हृदयं यदि यह कहता है कि रक्त की अम्लता से ह्रदय रोग होता है तो इस पर ही शोध कर नोबेल जीता जा सकता है.

वास्तव में शताब्दियों से स्वास्थ्य ज्ञान की गंगा श्रुति-स्मृति के रूप में दादा-दादी, नाना-नानी के माध्यम से निरन्तर प्रवहमान रही है, आत्म विस्मरण के दो चार सौ वर्षों ने हममें छद्म बुद्धिमता का रोपण कर दिया है, जिसके चलते ज्ञान-गंगा लुप्त-सुप्त हो गई थी. पाश्चात्य वैज्ञानिकों ने उस भारतीय ज्ञान गंगा को विज्ञान के धरातल प्रकट किया है, परन्तु हम भारतीय अभी भी अपनी बाजारवाद रोपित छद्म बुद्धिमता से मुक्त नहीं हो पा रहे हैं. इस ज्ञान को एक वर्षीय पीजी डिप्लोमा के माध्यम से व्यापक बनाया जा सकता है, या दो वर्षीय स्नातक डिप्लोमा, साथ ही एम.बी.बी.एस. की साढ़े पांच वर्षों की पाठ्यावधि में अधिकतम साठ घण्टों के कालखण्डों में हम उन्हें हमारे देश की विभिन्न औषधिविहीन, निरापद, सुप्रभावी और वैज्ञानिकों द्वारा सत्यापित चिकित्सा विधाओं तथा विज्ञानसम्मत आयुर्वेदिक दिनचर्या का परिचयात्मक ज्ञान सहजता से दे सकते हैं.

पन्द्रह दिसम्बर 2023 को अखिल भारतीय आयुर्वेदिक संस्थान, नईदिल्ली के नवप्रवेशित स्नातकोत्तर और पीएचडी विद्यार्थियों के हितार्थ आयोजित आधार शिला कार्यक्रम में शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास, नईदिल्ली के प्रतिनिधि और अतिथि वक्ता के रूप में मुझे आमंत्रित किया गया था. उस कार्यक्रम में शिवकृपा से रचित और मेरे द्वारा प्रस्तुत उद्बोधन की तथ्यात्मक जानकारियां संलग्न प्रस्तुति में समाहित हैं. हालांकि यह भारतीय ज्ञान परम्परा की अनुपमता, वैज्ञानिक दिव्यता, कालजयिता और सार्वजनिन कल्याण की भावना की एक झलक भर [ट्रेलर] है, परन्तु इस झलक मात्र से देश के नागरिकों के स्वास्थ्य की सुरक्षा, रोगमुक्ति, निरोगिता और रोगियों के पुनर्वास [Rehabilitation] से जुड़े नीति निर्धारकों को इस बात के लिए बाध्य करने के लिए पर्याप्त है कि भारत की ज्ञान परम्परा विज्ञान की कसौटी पर और सहजता-सरलता तथा सार्वभौमिक ग्राह्यता की दृष्टि से कितनी महत्वपूर्ण है और अनदेखी करने योग्य तो कदापि नहीं है.

आशा है सम्बन्धित सभी महानुभाव इसका अवलोकन करने का समय अवश्य निकालेंगे.

शोध के कुछ विषय

  • यह सर्वज्ञात है कि मौसम, ऋतु, प्रतिदिन सूर्यदर्शन, तापमान, वेशभूषा, आहार-विहार, कम से कम तेल का भोजन, ईश्वर पर आस्था, दिनचर्या, नशा, नागरिकों में तनाव की स्थिति, भूमध्य रेखा से दूरी, भौगोलिक दृष्टि आदि के परिप्रेक्ष्य में पाश्चात्य देश भारत से भिन्न हैं, अमेरिका में तनाव का प्रतिशत 55 बताया जाता है. भारत सभी दृष्टियों से भिन्न है, सूर्य दर्शन लगभग प्रतिदिन सम्भव हो जाते हैं, भारत में मीठा, तला हुआ, मसालेदार और घी तेल से भरपूर भोजन का प्रचलन है. ऐसी सभी स्थितियों में ब्लड केमिस्ट्री, लंग फंक्शन, लीवर फंक्शन, किडनी फंक्शन, लिपिड प्रोफाइल आदि पाश्चात्य देशों के आदर्श मानदण्डों की तुलना में भिन्न होना स्वाभाविक बात है. परन्तु भारत में पाश्चात्य मानदण्डों को आदर्श मानकर रोगों का निदान और उपचार किया जाता है, जो कि गम्भीर रूप से विचारणीय है.
  • पायलट प्रोजेक्ट के रूप में कम से कम पांच हजार विभिन्न आयु [18 से 40 वर्षीय] के स्वस्थ भारतीय नागरिकों के लंग फंक्शन, लीवर फंक्शन, किडनी फंक्शन टेस्ट्स, लिपिड प्रोफाइल, हीमोग्राम तथा अन्य ब्लड बायोकैमिकल पैरामीटर्स एवं ब्लडप्रेशर का परिमापन कीजिए और उनका उपलब्ध पाश्चात्य मानदण्डों से तुलनात्मक अध्ययन कीजिए और विश्लेषण कीजिए कि पाश्चात्य और भारतीय नागरिकों के सामान्य मानदण्डों में क्या-क्या अन्तर है और क्यों हैं? और उन अन्तरों विभिन्न रोगों के निदान और उपचार में क्या अन्तर सम्भावित हो सकते हैं?
  • एलोपैथी के आगमन के पूर्व, जब गाँवों-नगरों में पर्याप्त संख्या में वैद्य या उपचारक उपलब्ध नहीं होते थे, तब किन-किन रोगों के उपचार घरेलू नुस्खों से सहजता से हो जाया करते थे और वे नुस्खें कौन-कौन से थे, उनका संग्रहण कर, उन पर आधुनिक परिप्रेक्ष्य में शोध किया जा सकता है.
  • सुदूर गाँवों [कम से कम दस गाँवों] में रहने वाले कम से कम पांच सौ ग्रामीणों की जीवनशैली का अध्ययन किया जाए और उन विशेषताओं को खोजने का प्रयास किया जाए, जिनके बलबूते वे शहरी नागरिकों की तुलना में मधुमेह, उच्च रक्तचाप, थाइरोइड, आर्थराइटिस, तनाव, अनिद्रा आदि रोगों से तुलनात्मक रूप से बहुत कम ग्रस्त होते हैं.
  • आखिर दिनभर में मात्र एक समय, एक बैठक में [सिटिंग] सीमित खाद्यों वाला भोजन और पानी का सेवन करने वाले शुद्ध शाकाहारी दिगम्बर जैन साधुओं तथा दोनों समय मिताहार ग्रहण करने वाले श्वेताम्बर जैन साधुओं को पानी, प्रोटीन, विटामिन बी 12, आयरन, शारीरिक शक्ति आदि की कमी क्यों नहीं होती है?
  • लम्बे समय तक आयम्बिल नामक तपश्चर्या [बिना नमक, मिर्च, घी, तेल, शकर, हरी सब्जियां वाला आहार, एक समय] करने वाले जैन साधुओं और उनके अनुयायियों को शक्ति तथा मैक्रो और माइक्रो न्यूट्रीएंट्स की कमी क्यों नहीं होती है?
  • अनेक ग्रामीण अथवा निर्धन परिवार की खेतिहर अथवा श्रमिक महिलाएं 7-8 ग्राम प्रतिशत हीमोग्लोबिन होने पर भी बिना थकान का अनुभव किए आठ-दस घण्टों तक श्रम कैसे कर पाती हैं? ऐसी महिलाओं को पूरक के रूप में आयरन दिया जाए तो क्या प्रभाव पड़ता है?
  • अपने ससुराल में प्रसन्न और आश्वस्त विवाहित महिलाएं जब मायके में जाती हैं तो मनोशारीरिक और भावनात्मक रूप से क्या प्रभाव पड़ते हैं और उन प्रभावों का समग्र स्वास्थ्य पर क्या प्रभाव पड़ता है?
  • आयुर्वेद के अनुसार सुबह के भोजन के उपरान्त छाछ और शाम के भोजन के उपरान्त दूध का क्या औचित्य है?
  • पांच-पांच गमलों के तीन-तीन सेट एक समान मिट्टी, खाद आदि वाले गमलों में एक ही समय नीम, लौकी और टमाटर बोइये अथवा छोटे पौधें रोपें और एक सेट में साधारण पानी, एक में आरो पानी और एक में माइक्रोवेव ओवन के पानी से सिंचाई कीजिए, 7 दिन, 15 दिन, एक दो और तीन माह बाद प्रतिदिन उनके प्रभाव का अध्ययन किया जाए. विकास, फलना-फूलना, पौष्टिकता आदि में क्या स्पष्ट अन्तर परिलक्षित होता है?
  • क्या आयुर्वेदिक औषधियों के गुणधर्म के आधार पर ऐसी सिगरेट-बीड़ी का निर्माण सम्भव है, जिनसे धूम्रपान करने पर फेफड़ों की नलियों में सिकुड़न के स्थान पर उन्हें तथा फेफड़ों को अधिक स्वस्थ तथा सशक्त बना सकती हों?
  • क्या आपने हीरा रतन माणेक का नाम सुना है? वे बिना आहार लिए सूर्य दर्शन और 1500 मिलीलीटर जल के आधार पर स्वस्थ जीवन जी रहे हैं और उन पर नासा और एम्स, नईदिल्ली ने शोध किया है. उनसे प्रत्यक्ष मिलकर अथवा इंटरनेट पर उनके विषय में उपलब्ध जानकारियों के आधार पर उनकी इस तपश्चर्या की वैज्ञानिक विवेचना कीजिए.
  • अन्य विषयों का उल्लेख प्रस्तुति में किया गया है.

— डॉ. मनोहर लाल भंडारी