गजल
तीखे मोड़ हों जिसमें वो राह अच्छी नहीं होती
ए मेरे दोस्त बिन माँगी सलाह अच्छी नहीं होती
उड़ा देती है छत बस्ती के सब कच्चे मकानों की
बहुत ज्यादा भी तूफानी हवा अच्छी नहीं होती
महफिल में ना आने की वजह पूछी तो वो बोले
खुशियों के लिए गम की पनाह अच्छी नहीं होती
ज्यादा खींचने से डोर अक्सर टूट जाती है
हर दम रूठ जाने की अदा अच्छी नहीं होती
दवा भी ज़हर बन जाती है हो मिकदार ज्यादा तो
किसी भी बात की हो इंतिहा अच्छी नहीं होती
अगर उठे तो सीना चीर देती है पहाड़ों का
किसी के दिल से निकली बद्दुआ अच्छी नहीं होती
— भरत मल्होत्रा