लघुकथा – संस्कार बोलते हैं
सभागार में वयोवृद्ध पंडित जी प्रवचन कर रहे थे. सभागार खचाखच भर गया, बाद में आने वाले लोग बाहर खड़े सुन रहे थे. आयोजकों ने बाहर मैदान में जाने की घोषणा की. घोषणा होते ही बाद में आने वाले लोग पहले दौड़ कर वहां पहुंच गए. पहले आने वालों को पीछे बैठना पड़ा.
“मेरा आप सभी से निवेदन है कि जो देर से आए हैं, वे स्वयं ही पीछे हो जाएं और उन्हें आगे आने दें जो पहले आए थे.” पंडित जी ने कहा.
पंडित जी की बात सुनकर कुछेक गांव वाले पीछे चले गए और कुछेक आगे आ आए.
“पिताजी, पीछे चलिए. हम तो बाद में आए थे.” एक बेटी ने अपने पिता से कहा जो देर से आने के बाद आगे बैठे हुए थे.
“चुपचाप बैठी रह, यहां बैठे रहने से कोई अंतर नहीं पड़ता.” पिता ने घुड़कते हुए कहा.
“बिटिया पिता का हाथ छुड़ा कर पीछे की ओर चली गई, मजबूरन पिता को भी पीछे जाना पड़ा.” पंडित जी ने यह सब देखा, सुना और समझा.
“संस्कार बोलते हैं.” पंडित जी ने बच्ची को बुलाकर शाबाशी दी.
— लीला तिवानी