लघु-कथा – आस्था के पुष्प
प्रातः काल का समय,पर्वतों की ओट से सूर्य की सुनहरी आभा आसमान को सिंदूरी लाली से भर रही थी।पंछीगण चहचहाते हुए,सूर्योदय का अभिनंदन कर रहे थे।मंदिरों से घंटियों और शंख की ध्वनि,वतावरण झंकृत कर रही थी। ठीक ऐसे पावन समय में,कहीं से दूर से – ‘सिताराम! सिताराम!” जाप करने की आवाज आती है।
कुछ ही पल में एक पंडित जी दूर से आता हुआ दिखाई दिया। दर असल वह स्नान करके मंदिरों की ओर पूजा करने आ रहा था।तभी वह बिल्कुल पास ही आ गया,और मंदिर म न प्रवेश करके वह पुष्प उद्यानों की ओर बढ़ गया।और जैसे ही उद्यान में पहुंचा ,वह पुष्पों के झाड़ियों की ओर लपका।पर ये क्या? वह पंडित जी,एक झाड़ी से दूसरी झाड़ी ,दूसरी से तीसरी झाड़ी,और कई झाड़ियों के पास गया पर वह पुष्प नही तोड़ पाया।तभी वहाँ एक बुजुर्ग व्यक्ति आता है,पंडित जी को प्रणाम करता है- “पंडित जी प्रणाम!” इसके इस शिष्टाचार को वह अनदेखा कर देता है।और वह पंडित जी अपने पुष्पों की तलाश में इधर-उधर चहल कदमी कर ही रहा था।तभी वह बुजुर्ग व्यक्ति आया,और झट से पुष्प तोड़ के मंदिर की ओर बढ़ गया। जैसे ही वह मंदिर में वह प्रविष्ठ हुआ वह पंडित जी ने टोकते हुए कहा- “ठाहरो!ठाहरो!!
“ये क्या कर रहे हो वह पुष्प पवित्र नही है!
“क्यों पंडित जी! उस बुजुर्ग ने कहा।
पंडित जी ने कहा-” वह पुष्प का पेड़ अपवित्र स्थान पर है अतः वह पुष्प भी,,,!अतः वह चढ़ाने योग्य नही है?
तब फिर वह बुजुर्ग ने गंभीर मुद्रा मे कहा- “पंडित जी पवित्रता हमारे मन में होनी चाहिए,मन में आस्था के पुष्प होने चाहिए।” कोई पेड़ अपवित्र जगह में है इसका यह मतलब नही की वह पुष्प अपवित्र हो गया।कमल भी तो कीचड़ में ही खिलता है पर वह कभी अपवित्र नही होता! हमारा जन्म भी तो इसी प्रकार से हुआ है, तो क्या हम अपवित्र हो गए?
बुजुर्ग की बात पंडित जी की आत्मा में पड़े पर्दे को हटा दिया था।पंडित जी को बात समझ मे आ गई थी, वह निश्छल होकर पुनः सीताराम! सीताराम! कहते हुए पुष्प तोड़ना शुरु कर दिया।
— अशोक पटेल “आशु”