ग़ज़ल
आस लगा के रक्खी है,
जान फंसा के रक्खी है।
डरते नहीं हैं दुश्मन से,
आँख मिला के रक्खी है।
बरसों से सीने में इक,
आग दबा के रक्खी है।
तेरे ख़्वाब की आँधी ने,
नींद उडा के रक्खी है।
दिन सोए ना इस ख़ातिर,
रात जगा के रक्खी है।
चित्र भी तेरा, याद तेरी,
दिल में बसा के रक्खी है।
घर दुश्मन के बेटी की,
बात चला के रक्खी है।
ग़ज़ल ये तेरी हमने ‘जय’,
बज़्म में गा के रक्खी है।
— जयकृष्ण चांडक ‘जय’