शिक्षा के पथ पर बढ़ते हुए खुशियों के पड़ाव
शिक्षक अपने शिक्षकीय जीवन में दो स्थितियों से साथ-साथ गुजरता है – सीखना और सिखाना। पर यह उस शिक्षक के लिए ही संभव हो पाता है जो आत्मीयता, मधुरता एवं संवेदना के धरातल पर अवस्थित हो बच्चों के लिए विद्यालय एवं बाहरी दुनिया में उनकी अभिव्यक्ति एवं ज्ञान निर्माण के नित नवीन अवसर एवं जगह तलाशता है। दरअसल अवसरों की यह तलाश उसे विद्यार्थी बनाए रखती है और वह लगातार सीखने की प्रक्रिया से जुड़ा रहता हैं। यह जुड़ाव न केवल शिक्षक के रूप में उसको बेहतर करता है बल्कि बच्चों के साथ आत्मीय और मधुर मैत्रीपूर्ण व्यवहार की ठोस उर्वर जमीन भी तैयार करता है जिस पर बच्चों की नया सीख पाने की खुशी की फसलें लहलहाती हैं, फलती-फूलती हैं। एक अच्छा शिक्षक अपने विद्यार्थियों में न केवल विषय के प्रति ललक व समझ पैदा करता है बल्कि सोचने के नवल रास्ते भी खोलता है। वह बच्चों में अनुमान, अनुसंधान, अवलोकन की सम्यक् दृष्टि विकसित करता है साथ ही उन्हें वैज्ञानिक चेतनायुक्त, पर्यावरणीय संवेदनशीलता, तार्किकता से भी लैस करता है। वह पुरातनपंथी, परंपरागत पथ पर चलने का हामी नहीं होता बल्कि सुविचारित वैज्ञानिक संचेतनायुक्त संवेदनशील रचनात्मक पगडंडियों पर बढ़ने को प्रेरित करता है।
शिक्षा के पथ पर बढ़ते हुए एक शिक्षक के रूप में मेरी यात्रा न केवल समृद्ध सीख भरी रही है बल्कि स्वयं को एक शिक्षक के रूप मे आत्मावलोकन कर शैक्षिक बेहतरी की राह पर अग्रसर करने वाली भी रही है। इस शिक्षकीय यात्रा में तमाम खुशियों भरे पड़ाव मिले जहां ठहर कर मैंने स्वयं की आलोचना कर आगे की सुरभित यात्रा हेतु नये रास्ते खोजे हैं।
इस शैक्षिक यात्रा में मैं अपने अर्जित ज्ञान को लेखों के रूप में व्यक्त करता रहा हूं जो एक शिक्षक के रूप में मेरे जमीनी अनुभवों की अभिव्यक्ति हैं जिन्हें शिक्षकों, बच्चों एवं समुदाय के साथ काम करते हुए हासिल किया है। ये मनोभाव केवल शिक्षा एवं समाज क्षेत्र का विश्लेषण ही नहीं करते बल्कि मूल्यांकन करते हुए सोचने का फलक उपलब्ध कराते हैं। हालांकि जिन मुद्दों या घटनाओं पर लेख लिखे गए हैं, यह बिल्कुल आवश्यक नहीं कि आज भी वही स्थितियाँ होंगी क्योंकि समय के प्रवाह में पुल के नीचे से बहुत पानी बह चुका है। हालांकि परिदृश्य में कोई बड़ा परिवर्तन दिखाई नहीं देता है। मुझे मई 2011 से अगस्त 2019 तक ब्लॉक संसाधन केंद्र नरैनी, बाँदा में सह-समन्वयक हिंदी भाषा के पद पर काम करने का अवसर मिला। उस कालावधि में विभिन्न विद्यालयों में नियमित जाना और शिक्षकों, बच्चों एवं अभिभावकों से संवाद की स्थितियाँ बनीं। कभी शिक्षा के मुद्दों पर तो कभी वृहद सामाजिक कार्य व्यवहार पर। इस प्रक्रिया से गुजर कर मैं एक शिक्षक के रूप में लगातार समृद्ध होता रहा हूँ, अर्जित अनुभवों को डायरी में नोट करता रहा जो समय मिलने पर लेख के रूप में विभिन्न समाचार पत्रों एवं पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए। 18 नवंबर, 2012 को कुछ रचनाधर्मी शिक्षक एवं शिक्षिकाओं के साथ मिलकर पूर्व माध्यमिक विद्यालय बरेहंडा में स्वप्रेरित मैत्री समूह ‘शैक्षिक संवाद मंच’ की स्थापना की। मंच का उद्देश्य विद्यालयों को आनंदघर के रूप में बदलाव करना है। विद्यालयों के इस बदलाव में शिक्षकों, बच्चों एवं समुदाय सभी की सहभागिता आवश्यक थी। अलग-अलग संवाद कार्यशाला, गोष्ठियाँ आरंभ की गईं। ‘विद्यालय बनें आनंदघर’ के ध्येय के साथ शैक्षिक संवाद मंच के साथ नियमित मासिक बैठकें, वार्षिक शैक्षिक चिंतन शिविर, विज्ञान यात्राएँ, विज्ञान, भाषा एवं सामाजिक विषय पर कार्यशालाएँ करते हुए शिक्षक-शिक्षिकाओं की क्षमता वृद्धि कर एक दूसरे से सीखना-सिखाना बना रहा। ऐसे ही बच्चों के साथ विभिन्न सामाजिक मुद्दों पर मीना मंच एवं बाल संसद का गठन कर बात की जाती रही। विद्यालय समाज का साहित्यिक, शैक्षिक एवं साँस्कृतिक केंद्र है, यह समाज की संपत्ति है, विद्यालय के प्रति अपनेपन का भाव बने इस दृष्टि से समुदाय के साथ बैठकें कर विद्यालय विकास एवं ग्राम संस्कार के मुद्दों से जोड़ सहयोग लिया गया। मुझे स्मरण है 18 नवम्बर, 2012 को शैक्षिक संवाद मंच की स्थापना के बाद समुदाय को विद्यालय से जोड़ने के लिए पूर्व माध्यमिक विद्यालय बरेहंडा में 24 नवम्बर, 2012 देवोत्थानी एकादशी के अवसर पर विद्यालय को लगभग एक हजार दीपों से सजाया गया। पूरा प्रबंध अभिभावकों एवं समुदाय ने किया। ज्ञान बिखेरने वाला विद्यालय का परिसर प्रकाश से नहा गया। लगा कि जैसे हजारों नन्हे सूरज विद्यालय की भूमि पर उतर आये हों। विद्यालय को दीपों से सजाने का यह सिलसिला चल पड़ा और शैक्षिक संवाद मंच के नेतृत्व में दीपावली से देवोत्थानी एकादशी तक अगले वर्ष 15 विद्यालयों को समुदाय के सहयोग से प्रकाशित किया गया। सरकारी विद्यालयों के प्रति समुदाय की धारणा बदली और विद्यालय के प्रति अपनापन पैदा हुआ। इस राह में रामकिशोर पांडेय, मीरा वर्मा, इंसाफ अली, चंद्रशेखर सेन, विनोद गुप्ता, बलरामदत्त गुप्त (बांदा), दुर्गेश्वर राय (गोरखपुर), आलोक कुमार श्रीवास्तव (चित्रकूट), प्रीति भारती (उन्नाव), ऋतु श्रीवास्तव (हापुड़) विनीत मिश्रा (कानपुर देहात) जैसे शिक्षक हमराही बने। इसका परिणाम था कि विद्यालय आनंदघर बनने की दिशा में बढ़ने लगे। विद्यालय बच्चों के लिए ज्ञान निर्माण की अपनी जगह के रूप में उभरे। बच्चों को विद्यालय आना खुशियों से मिलने जैसा लगने लगा। बच्चों में अपने परिवेश की समझ विकसित हो और चीजों के अवलोकन की क्षमता वृद्धि के साथ विविध दृष्टिकोण से समस्याओं का समाधान कर सकें, मन के भावों को व्यक्त कर सकें, साथ ही सामूहिकता के भाव के साथ कार्य संपादन सीखें, इसके लिए दीवार पत्रिका का प्रकाशन आरम्भ किया। दीवार पत्रिका के नामकरण से लेकर विषय-वस्तु के चयन, संपादन एवं प्रकाशन का पूर्ण उत्तरदायित्व बच्चों का ही रहा। इससे बच्चों में बड़े सकारात्मक परिवर्तन देखे गये। बच्चों की रचनाएं एकलव्य, भोपाल की पत्रिका चकमक में छपने लगीं। दीवार पत्रिका पर कार्य करते हुए शिक्षक के रूप में नयी समझ बनी। राजेश उत्साही, भोपाल तथा महेश चंद्र पुनेठा, पिथौरागढ़ जैसे साथियों का सान्निध्य मिला। मुझे याद आता है कि दीवार पत्रिका का एक अंक लोकगीत विशेषांक के रूप में निकाला। उन लोकगीतों को जिन्हें पिछड़ेपन की निशानी समझ बच्चे हेय दृष्टि से देखते थे, उस अंक पर काम करते हुए लोक-संस्कृति के महत्व से परिचित हुए और दर्जनों लोकगीत कंठस्थ किए। नागपंचमी, मकरसंक्रांति होली, दीवाली आदि सामाजिक त्योहार स्कूल में मनाया जाना आरम्भ हुआ। दीवार पत्रिका के अंक गांव के प्रमुख स्थानों-चौपालों पर लगायें जाने लगे ताकि समुदाय अपने बच्चों की प्रतिभा से परिचित हो सके, साथ ही बच्चों की अपेक्षाओं से भी।
शिक्षा के पथ पर बढ़ते हुए विद्यालयों में बच्चों के चेहरों पर खुशियों की लहरें देख प्रसन्नता होती कि जिस रास्ते पर कदम बढ़ा रहा हूं वह उचित है। आज भी रुका नहीं हूं, शिक्षा के पथ पर अविराम अनथक बढ़ रहा हूं ताकि बच्चों की हथेलियों पर दमकते जुगनू उतार सकूं, उनके हृदय में परस्पर प्रेम, करुणा, मधुरता, न्याय, विश्वास, मानव मूल्य और सामूहिकता के भाव उत्पन्न कर सकूं। रुका नहीं हूं, चला जा रहा हूं जैसे बहती है कोई नदी, बहता है मलय समीर और बहता है आसमान में हजारों आकृतियां बनाता बादल जिसके पीछे से उग आता है खुशियों का इंद्रधनुष।
— प्रमोद दीक्षित मलय