गीत/नवगीत

गीत

दिखते हैं इस जगत में दुःख सुख प्रीती जलन।
याद आता कृष्ण से सीखा त्रिगुणवर्तन॥

कि घूमता है कर्म-लेखन गुणों के परिचलन में।
होते फलित जग-तज़ुर्बे अम्लीय मधुमय कलन में॥

पूछो मुझे तो कहूँगा जानो कि ये हैं ही नहीं।
ये जगत के जंजाल हैं शून्य में दिखते नहीं॥

रो रहा तू इन्हें लेकर दिवाना होकर कहे।
दर्द-ए-चुभन के फ़लसफे दुखी हो तूने गहे॥

या फिर कहता है इन्हें ख़ुशी का दौर-ए-अंज़ाम।
सत्संग का माली असर सत्कर्म का परिणाम॥

बहुत रोता है ख़ुदी में गा शिकायतों के फसाने।
छद्म हैं आँसू अनृत मृत वेदना के तराने॥

झूठ है तेरी मुहब्बत अश्कों में विष भरती है ये।
किसी दीमक की तरह चाटे तेरी हस्ती को ये॥

रोना है तो मीरा के आँसू चैतन्य होकर रो।
घुल जाएंगे इन अश्रुओं में त्रिगुण के सब हो*॥

बुद्ध को भी दिखे थे दुख-दर्द के किस्से तमाम।
यदि रोते तो कभी नहीं ला पाते नित समाधान॥

ये त्रिगुण के सब खेल हैं इस खेल को बस जान ले।
सुख-दुख सदा हैं ऊपरी यह बात मेरी मान ले॥

जब जान लेगा त्रिगुणवर्तन तब रुदन थम जाएगा।
फिर बेवफ़ाई दर्द के नग़्मे कभी नहिं गाएगा॥

(*होने का भाव, आत्मभाव)

— मदन गोपाल गुप्ता “अकिंचन”

मदन गोपाल गुप्ता 'अकिंचन'

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