पतिंगे की दिये अब, कहां मुलाकात होती है
अब सांझ नही होती, बस रात होती है
चरागों की चौखट से, न बात होती है
अंधेरे से उजाले का, जो रूप दिखता था
उगता चांद गायब ओ, बस महताब होती है
दीप यहां के बुझे गये सारे, मायूस पतिंगे हैं
न शिखा ही लहराती, न बरसात होती है
चिलमन से रौशनी पे, जो पहरा लगता था
दामन की हवाओं से अब, बे बात होती है
यहां से दौर ओ गुजरा, अब ’’राज‘‘ दूजा है
पतिंगे की दिये अब, कहां मुलाकात होती है
राज कुमार तिवारी ‘‘राज’’