कविता

कलम का हत्यारा

अब इसे कहूं तुम्हारी हताशा

या लहू से हाथ रंगने का जुनून,

बड़ी आसानी से बोल रहा है कि

मैंने कर डाला कलम का खून,

ऐसा करके तूने की है

वाहियात कोशिश मिटाने की

बुद्ध के विचारों को,

कबीर, रैदास के विचारों को,

ज्योतिबा,सावित्री के सरोकारों को,

चुनौती देते पेरियार के दहकते अंगारों को,

बाबा साहब के बोये संस्कारों को,

जागरूक करते कांशी के

पंद्रह-पच्चासी वाले बहुजन विचारों को,

पर भूलना मत कि कत्ले-कलम से

फिर पैदा होंगे अनगिनत कलम,

उस काल्पनिक रक्तबीज की तरह,

तब तू पड़ा रहेगा ताउम्र गाली खाते

अपनों से, खुद से,

क्या तुम्हें अब भी उम्मीद है कि

कलम फिर से लिखेगा

वो काल्पनिक बहकावे

जिसके चपेट में तू आ गया।

— राजेन्द्र लाहिरी

राजेन्द्र लाहिरी

पामगढ़, जिला जांजगीर चाम्पा, छ. ग.495554