भाषा-साहित्य

नागरी प्रचारिणी सभा, काशी की करुण-कथा

हिन्दी को हर तरह से समृद्ध करके उसे शक्तिशाली भाषा बनाने और उसके माध्यम से इस विशाल और भिन्न-भिन्न संस्कृतियों वाले देश को एक सूत्र में जोड़ने का जो ऐतिहासिक कार्य नागरी प्रचारिणी सभा काशी ने किया है वैसा भारत की किसी दूसरी संस्था ने नहीं.

राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी के सबसे बड़े समर्थक महात्मा गाँधी का भारतीय राजनीति के रंगमंच पर आने के लगभग दो दशक पहले ही अर्थात 16 जुलाई 1893 को श्यामसुंदर दास, रामनारायण मिश्र और शिवकुमार सिंह नाम के क्वींस कॉलेज बनारस के तीन छात्रों ने नागरी प्रचारिणी सभा की नींव रखी थी. ये तीनों उन दिनों नवीं के छात्र थे. अध्यक्ष बनाए गए बाबू राधाकृष्ण दास. 30 सितंबर 1894 को सभा का पहला अधिवेशन बनारस के कारमाइकेल पुस्तकालय में हुआ था. सभा के अधिकाँश वरिष्ठ सदस्य चाहते थे कि राजा शिवप्रसाद सितारेहिन्द इस सभा की अध्यक्षता करें. नागरी की लड़ाई लड़ने वाले उन दिनों वे बनारस के ही नहीं, देश के सबसे प्रभावशाली व्यक्ति थे.

बाबू राधाकृष्ण दास और बाबू कार्तिक प्रसाद सभा के इस पहले आयोजन की अध्यक्षता का प्रस्ताव लेकर जब राजा शिवप्रसाद सितारेहिन्द के यहाँ गये तो उन्होंने बहुत विनम्रतापूर्वक इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया, किन्तु बाबू राधाकृष्ण दास के बहुत आग्रह पर उन्होंने अपनी स्वीकृति दे दी. इसके बाद जब यह खबर फैली तो कांग्रेसियों सहित भारतेन्दु मंडल के परवर्ती सदस्यों ने भी धमकी दी कि यदि सितारेहिन्द सभापति बने तो वे कार्यक्रम का बहिष्कार करेंगे. इस मुसीबत को टालने के लिए बाद में ‘काशी’ पत्रिका के संपादक और क्वींस कॉलेज के शिक्षक पं. लक्ष्मीशंकर मिश्र को अध्यक्ष बनाया गया. हालांकि, इसके एक साल बाद ही राजा शिवप्रसाद का निधन हो गया.

नागरी प्रचारिणी सभा ने आरंभ से ही समाज पर अपना व्यापक प्रभाव छोड़ा. सभा के प्रारंभिक सदस्यों में पं. सुधाकर द्विवेदी, सर जार्ज ग्रियर्सन, अंबिकादत्त व्यास और बदरीनारायण चौधरी प्रेमघन जैसे मनीषी थे. अपनी स्थापना के मात्र पाँच वर्ष बाद ही सभा के प्रयास से उत्तर प्रदेश ( तत्कालीन संयुक्त प्रान्त) में सरकारी कर्मचारियों के लिए उर्दू और हिन्दी भाषाओं का ज्ञान अनिवार्य कर दिया गया.

दरअसल इसके पहले न्यायालयों में अंग्रेजी, उर्दू और फारसी का बोलबाला था और हिन्दी बोलने वालों को हेय दृष्टि से देखा जाता था. इसी बीच सन् 1896 में ब्रिटिश सरकार ने सरकारी दफ्तरों और अदालतों में फारसी अक्षरों की जगह रोमन लिखने का एक आदेश निकाला. इससे हिन्दी और नागरी के समर्थकों के सामने बड़ी चुनौती पैदा हो गई. उन्हें लगा कि यदि इसका विरोध नहीं किया गया और अदालतों तथा सरकारी दफ्तरों में रोमन लागू हो गयी तो देवनागरी और हिन्दी के लिए रास्ता हमेशा के लिए बंद हो जाएगा. इसलिए सभा ने इसके विरोध का निर्णय लिया. बाबू श्यामसुंदर दास और बाबू राधाकृष्ण दास ने इसका नेतृत्व किया. इसके लिए उन्हें मुजफ्परपुर के दो नागरी भक्तों- परमेश्वर नारायण मेहता और विश्वनाथ प्रसाद मेहता का विशेष आर्थिक सहयोग मिला. राधाकृष्ण दास ने ‘द नागरी कैरेक्टर’ नाम से लेख लिखा जिसे पैम्फ्लेट के रूप में छपवाकर बँटवाया गया. इसका पूरे हिन्दी समाज पर व्यापक असर हुआ. फलस्वरूप जुलाई 1896 में सरकार द्वारा अदालतों और दफ्तरों में रोमन के प्रयोग संबंधी अपना आदेश वापस लेना पड़ा.

इस घटना से सभा के संचालकों का मनोबल बढ़ा. उन लोगों ने अदालतों में नागरी लिपि को लागू करने के लिए आन्दोलन करने का निर्णय लिया. पं. मदन मोहन मालवीय ने “कोर्ट कैरेक्टर एण्ड प्राइमरी एजुकेशन इन नार्थ वेस्टर्न प्रोविन्सेज एण्ड अवध” शीर्षक से एक महत्वपूर्ण लेख लिखा जिसका बाबू श्यामसुंदर दास ने हिन्दी में “पश्चिमोत्तर प्रदेश तथा अवध में अदालती अक्षर और प्राइमरी शिक्षा” शीर्षक से सार-संक्षेप हिन्दी में तैयार किया. यह लेख नागरी प्रचारिणी सभा की ओर से प्रकाशित और वितरित किया गया. इस लेख में ‘’कोर्ट ऑफ डाइरेक्टर’’ के 30 सितंबर 1830 ई. के आज्ञापत्र का उल्लेख करते हुए बताया गया था कि,

”यहाँ के निवासियों को जज की भाषा सीखने के बदले जज को भारतवासियों की भाषा सीखना बहुत सुगम होगा, अतएव हम लोगों की सम्मति है कि न्यायालयों की समस्त कार्यवाई उस स्थान की भाषा में हो.”

इस लेख में इस तथ्य का भी उल्लेख है कि, “मदर बोर्ड आफ रेवेन्यू” ने 30 मई 1837 ई. को एक आज्ञापत्र जारी कर सरकारी काम-काज को देश भाषा में करने का आदेश दिया था.

मालवीय जी के इस लेख का खूब प्रचार हुआ. इसके साथ ही, नागरी प्रचारिणी सभा के कार्यकर्ताओं ने विभिन्न शहरों में घूम-घूम कर “नागरी कोर्ट कैरेक्टर मेमोरियल” पर लोगों के हस्ताक्षर करवाए. कुल साठ हजार व्यक्तियों के हस्ताक्षर करवाए गए और उसे सोलह जिल्दों में तैयार किया गया. हस्ताक्षर करवाने वालों में केदारनाथ पाठक की मुख्य भूमिका थी. इसी कारण उन पर राजद्रोह का मुकदमा चला और उन्हें जेल की हवा भी खानी पड़ी थी.

नागरी प्रचारिणी सभा ने पश्चिमोत्तर प्रान्त के लेफ्टिनेन्ट गवर्नर एंटोनी मैक्डॉनेल को “नागरी कोर्ट कैरेक्टर मेमोरियल” तथा मेमोरंडम देने का निर्णय लिया. इसके लिए उस समय के सत्रह अति विशिष्ट व्यक्तियों का प्रतिनिधिमंडल गठित किया गया ताकि लेफ्टिनेंट गवर्नर पर उसका व्यापक प्रभाव पड़ सके. इनकी सूची ‘सरस्वती’ के अप्रैल 1900 के अंक मे प्रकाशित है. वह सूची इस प्रकार है-

  1. महाराज सर प्रतापनारायण सिंह बहादुर, के. सी. आई. ई., अयोध्या 2. राजा रामप्रताप सिंह बहादुर, माँडा इलाहाबाद 3. राजा घनश्याम सिंह, मुरसान, अलीगढ 4. राजा रामपाल सिंह मेम्बर लेजिसलेटिव कौंसिल, रामपुर, प्रतापगढ 5. राजा सेठ लक्ष्मणदास, सी. आई. ई., मथुरा 6. राजा बलवंत सिंह, सी. आई. ई., एटा 7. राय सिद्धेश्वरी प्रसाद नारायण सिंह बहादुर, गोरखपुर 8. राय कृष्ण सहाय बहादुर, सभापति देवनागरी प्रचारिणी सभा, मेरठ 9. राय कुंवर हरिचरण मिश्र बहादुर, बरेली 10. राय निहालचन्द बहादुर, मुजफ्फर नगर 11. आनरेबल राय श्रीराम बहादुर, एम.ए.बी.एल. एडवोकेट अवध, मेम्बर प्रांतिक लेजिसलेटिव कौंसिल, तथा फेलो इलाहाबाद युनिर्वसिटी, लखनऊ 12. राय प्रमदादास मित्र बहादुर, फेलो इलाहाबाद युनिर्वसिटी 13. आनरेबल सेठ रघुबरदयाल, मेम्बर प्रांतिक लेजिसलेटिव कौंसिल, सीतापुर 14. मुन्शी माधवलाल, रईस, काशी 15. मुन्शी रामनप्रसाद, एडवोकेट तथा सभापति कायस्थ पाठशाला कमेटी, इलाहाबाद 16. पंडित सुन्दरलाल बी.ए. एडवोकेट तथा फेलो इलाहाबाद युनिर्वसिटी 17. पंडित मदनमोहन मालवीय, बी.ए. एल.एल.बी., वकील हाईकोर्ट, तथा प्रतिनिधि काशी नागरी प्रचारिणी सभा.

2 मार्च 1898 को मदनमोहन मालवीय के नेतृत्व में यह प्रतिनिधि मंडल लेफ्टीनेंट गर्वनर एंटोनी मैकडानेल से मिला और अपना मेमोरेंडम सौंपा. लेफ्टिनेंट गवर्नर ने उन्हें ध्यान से सुना, उसका असर हुआ और 18 अप्रैल 1900 को लेफ्टीनेंट गर्वनर ने ‘बोर्ड आफ रिवेन्यु’ और हाई कोर्ट तथा ‘जुडिशियल कमिश्नर अवध’ से सम्मति लेकर इस संबंध में आज्ञापत्र भी जारी कर दिया. ‘सरस्वती’ ने अपने अप्रैल 1900 के अंक में इसे गौरव के साथ प्रकाशित किया. वह आज्ञा पत्र इस प्रकार है-

  1. सम्पूर्ण मनुष्य प्रार्थनापत्र और अर्जीदावों को अपनी इच्छा के अनुसार नागरी या फारसी के अक्षरों में दे सकते हैं.
  2. सम्पूर्ण सम्मन, सूचनापत्र और दूसरे प्रकार के पत्र जो सरकारी न्यायालयों वा प्रधान कर्मचारियों की ओर से देश भाषा में प्रकाशित किए जाते हैं, फारसी और नागरी अक्षरों में जारी होंगे और इन पत्रों की शेष भाग की खानापूरी भी हिन्दी भाषा में उतनी ही होगी जितनी फारसी अक्षरों में की जाए.
  3. अंग्रेजी अफसरों को छोड़कर आज से किसी न्यायालय में कोई मनुष्य उस समय तक नहीं नियत किया जायगा जब तक वह नागरी और फारसी अक्षरों को अच्छी तरह से लिख और पढ़ न सकेगा.

इस आज्ञापत्र की एक-एक प्रति सभी कार्यालयों के प्रधान कर्मचारियों और विभागों में भेजकर सरकारी गजट में प्रकाशित करने का आदेश दिया गया.

इस आज्ञापत्र का तीसरा आदेश उल्लेखनीय है जिसमें स्पष्ट लिखा है कि नागरी और फारसी अक्षरों को अच्छी तरह लिख -पढ़ सकने वालों को ही सरकारी नौकरी मिलेगी. फारसी अक्षरों से तात्पर्य फारसी भाषा नहीं है, भाषा हिन्दी ही है, लिपि फारसी है. आज अपनी आजादी का अमृत महोत्सव मनाते समय हमारा सिर शर्म से झुक जाता है जब हम देखते हैं कि इस देश के सुप्रीम कोर्ट से लेकर 25 में से 21 हाई कोर्टों में हिन्दी और नागरी के लिए कोई जगह नहीं है. यूपीएससी से लेकर एसएससी तक की सभी सरकारी नौकरियों में हिन्दी की जगह सीमित कर दी गई है. 1830 में अंग्रेजों ने सुझाव दिया था कि यहाँ के निवासियों को जज की भाषा सीखने की जगह जज को यहाँ के निवासियों की भाषा सीखनी चाहिए और न्याय की कार्यवाही स्थानीय भाषा मे होनी चाहिए. सवाल यह है कि इस देश की जनता के लिए अंगेजों की नीति अधिक जनतांत्रिक थी या इस तथाकथित आजाद मुल्क के रहनुमाओं की ?

बहरहाल, नागरी प्रचारिणी सभा के प्रयास से हिन्दी क्षेत्र की जनता को भाषाई गुलामी से उन्हीं दिनों आजादी मिल गई थी किन्तु सन् 47 की तथाकथित आजादी के बाद काले अंग्रेजों ने हमें फिर से उसी भाषाई गुलामी में जकड़ दिया.

नागरी प्रचारिणी सभा ने आजादी से पहले हिन्दी के लिये जो काम किया है वही हमारी विरासत है. उसने आर्यभाषा पुस्तकालय की स्थापना की जो देश में हिन्दी का सबसे बड़ा पुस्तकालय है. इस पुस्तकालय में बीस हजार से अधिक पाण्डुलिपियाँ, पचास हजार से अधिक पुरानी पत्रिकाएं और सवा लाख से अधिक पुस्तकों का विशाल भण्डार है. हस्तलिखित ग्रंथों का इतना बड़ा संग्रह अन्यत्र नहीं है. आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, जगन्नाथदास रत्नाकर, मायाशंकर याज्ञिक, हीरानंद शास्त्री, रामनारायण मिश्र जैसे मनीषियों ने अपने निजी पुस्तकालय इसे दान कर दिये थे.

अपनी स्थापना के बाद से ही सभा ने गाँवों, शहरों, मंदिरों, मठों, जागीरदारों आदि के यहाँ विखरी हुई हस्तलिखित ग्रंथों की खोज का काम आरंभ किया. सभा की ओर से अन्वेषक दूर- दूर तक जाकर ऐसी कृतियों का पता लगाते थे, उन्हें लाने की व्यवस्था करते थे और सभा उनमें से चुनी हुई कृतियों का संपादन और प्रकाशन करती थी. सभा ने 1955 ई. तक की खोज का विवरण भी दो भागों में प्रकाशित किया है.

सभा द्वारा ‘हिन्दी शब्द सागर’ का प्रकाशन एक ऐतिहासिक घटना है. उल्लेखनीय है कि इसका प्रस्ताव भी सभा के एक अंग्रेज सदस्य रेवरेंड ई.ग्रिव्स ने सभा के सामने 3 अगस्त 1907 को रखा था और आग्रह किया था कि सभा इस कार्य को अपने हाथ में ले. सभा ने इस चुनौती को स्वीकार किया. अनेक अवरोधों, प्रतिकूलताओं के बावजूद निरंतर कार्य होता रहा और अंतत: पूरा भी हुआ. इसमें कुल बीस वर्ष लगे. इसके प्रधान संपादक बाबू श्यामसुंदर दास ने 31 जनवरी 1927 के अपने संपादकीय में इस कोश के कार्यारंभ से लेकर पूरा होने तक का विस्तृत विवरण दिया है और उन्होंने यह भी लिखा है कि, “इस कोश के कार्य में स्थापना से लेकर अंत तक पंडित रामचंद्र शुक्ल का संबंध रहा है, ….यदि यह कहा जाय कि शब्द सागर की उपयोगिता एवं सर्वांगपूर्णता का सर्वाधिक श्रेय पं. रामचंद्र शुक्ल को प्राप्त है, तो इसमे कोई अत्युक्ति न होगी.” ( भूमिका, पृष्ठ-8)

इस कोश के निर्माण में 13 हजार रूपये का सर्वाधिक आर्थिक सहयोग संयुक्त प्रदेश के राजभवन से मिला था. तब अंग्रेजों की सरकार थी. सर जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन ने भी अपने पास से डेढ़ सौ रूपये का आर्थिक सहयोग दिया था. जब मैं इन तथ्यों का उल्लेख कर रहा हूँ तो मेरे मन में नागरी प्रचारिणी सभा जैसी राष्ट्रीय महत्व की संस्था के प्रति प्रदेश और केन्द्र सरकार की उपेक्षात्मक दृष्टि की ओर आप का ध्यान आकृष्ट करना है. सरकार के उपेक्षात्मक रवैये के कारण ही आज यह संस्था खून के आँसू रो रही है.

इसी तरह सभा द्वारा संपादित बारह खंडों में ‘हिन्दी विश्वकोश’ का निर्माण भी है. 1954 ई. में सभा ने हिन्दी में मौलिक तथा प्रामाणिक विश्वकोश के प्रकाशन का प्रस्ताव भारत सरकार के सम्मुख रखा था. इसके लिए एक विशेषज्ञ समिति का गठन किया गया और उसकी पहली बैठक 11 फरवरी 1956 ई. को हुई. विश्वकोश के निर्माण का कार्य जनवरी 1957 में आरंभ हुआ और 1970 तक बारह खंडों में यह कार्य पूरा हुआ. इसके संपादक मंडल में थे सभा के तत्कालीन अध्यक्ष पं. गोविन्द वल्लभ पंत, डॉ.धीरेन्द्र वर्मा,( प्रधान संपादक) डॉ.भगवतशरण उपाध्याय ( संपादक). डॉ.गोरख प्रसाद ( संपादक) तथा डॉ.राजबली पाण्डेय ( मंत्री)

नागरी प्रचारिणी सभा की प्रकाशन परियोजना की तीसरी सबसे बड़ी उपलब्धि “हिन्दी साहित्य का वृहत् इतिहास” है. कुल सोलह खंडों और 9000 पृष्ठों में फैले इस असाधारण इतिहास ग्रंथ में 1960 से पूर्व तक के हिन्दी साहित्य का विस्तृत और प्रामाणिक विवेचन है. 1953 में इस परियोजना की स्वीकृति मिली थी. इस परियोजना के प्रधान संपादक डॉ. अमरनाथ झा थे. डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने 3 दिसंबर 1957 को इसके पहले भाग की प्रस्तावना लिखी. 1984 ई. में इसके प्रकाशन का कार्य पूरा हो सका. इसके लेखकों में राजबली पाण्डेय, धीरेन्द्र वर्मा, परशुराम चतुर्वेदी, करुणापति त्रिपाठी, वासुदेव सिंह, दीनदयालु गुप्त, विजयेन्द्र स्नातक, नगेन्द्र, भगीरथ मिश्र, विनयमोहन शर्मा, सुधाकर पाण्डेय, दशरथ ओझा, निर्मला जैन, लक्ष्मीनारायण सुधाँशु, हरवंशलाल शर्मा, राहुल सांकृत्यायन, कृष्णदेव उपाध्याय आदि प्रमुख हैं.

नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना जिस समय हुई थी उस समय हिंदी का कोई प्रामाणिक व्याकरण नहीं था. बाबू श्याम सुंदर दास, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, चंद्रधर शर्मा गुलेरी, लज्जा शंकर झा आदि के सहयोग से हिंदी का प्रामाणिक व्याकरण तैयार किया गया. इनके अलावा सभा ने वैज्ञानिक शब्दावली, हिन्दी साहित्य का इतिहास आदि अन्य अनेक बहुमूल्य ग्रंथों का प्रकाशन किया है. सभा ने ही सबसे पहले हिन्दी में पारिभाषिक शब्दावली प्रकाशित की. उसने सूर, तुलसी, कबीर, जायसी, भिखारीदास, पद्माकर, जसवंतसिंह, मतिराम आदि प्रमुख कवियों की ग्रंथावलियाँ प्रकाशित कीं. सभा द्वारा प्रकाशित ग्रंथों की संख्या लगभग पांच हजार है. आज हिन्दी साहित्य का जो इतिहास उपलब्ध है उसकी समृद्धि में सभा द्वारा अन्वेषित, संपादित और प्रकाशित कृतियों की बड़ी भूमिका है. ‘नागरी प्रचारिणी पत्रिका’ का प्रकाशन 1997 में ही शुरू हो गया था.

सभा ने 1953 ई. में अपना प्रेस स्थापित किया. सभा लंबे समय तक अहिन्दी भाषी छात्रों को हिन्दी पढ़ने के लिये छात्रवृत्ति देती थी. उसने हिन्दी में आशु लिपि ( शार्ट हैंड) तथा टंकण ( टाइप राइटिंग) की शिक्षा देने की भी व्यवस्था किया था. उसकी ओर से हिन्दी साहित्यकारों को कई तरह के पुरस्कार और पदक आदि दिये जाते थे. विद्वानों और साहित्यकारों को आमंत्रित करना और उनके व्याख्यान कराना सभा के नियमित कार्यक्रमों में शामिल था.

1905 में सभा के मंच से ही लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने सबसे पहले घोषणा की कि हिन्दी ही भारत की सर्वमान्य भाषा हो सकती है और देवनागरी लिपि वैकल्पिक रूप से भारत की सभी भाषाओं के लिए प्रयुक्त की जानी चाहिए. उन्होंने सुझाव दिया कि सभा को इसके लिए प्रयास करना चाहिए.

आरंभ में ‘सरस्वती’ के संपादन की व्यवस्था भी सभा ही करती थी. 1899 ई. में इंडियन प्रेस के मालिक बाबू चिन्तामणि घोष ने बाबू श्यामसुंदर दास को सभा की ओर से एक मासिक पत्रिका निकालने का प्रस्ताव दिया था. बाबू श्यामसुंदर दास ने उनका प्रस्ताव इस शर्त के साथ स्वीकार किया कि वे संपादन का दायित्व स्वयं ग्रहण नहीं करेंगे. इसका समाधान सभा ने एक संयुक्त संपादन समिति बनाकर किया जिसमें जगन्नाथदास रत्नाकर, बाबू श्यामसुंदर दास, बाबू राधाकृष्ण दास, किशोरीलाल गोस्वामी और कार्तिक प्रसाद खत्री शामिल थे. इस समिति के संपादन में ‘सरस्वती’ का जनवरी 1900 में पहला अंक निकला. इसमें भले ही नाम कई लोगों का था किन्तु संपादन का अधिकाँश काम बाबू श्यामसुंदर दास को ही करना पड़ता था. इसीलिए एक साल बाद समिति भंग कर दी गई और संपादक बाबू श्याम सुंदर दास हो गए. इसके बाद जनवरी 1903 ई. से बाबू श्याम सुंदर दास ने ‘सरस्वती’ के संपादन से अपने को मुक्त कर लिया और इसके बाद यह दायित्व आचार्य महाबीर प्रसाद द्विवेदी को मिला.

आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के संपादन में ‘सरस्वती’ का पहला अंक जनवरी 1903 ई. में प्रकाशित हुआ. इस अंक के कवर पृष्ठ पर बाबू श्यामसुंदर दास की तस्वीर थी जिसके नीचे टैग करके लिखा गया था,

‘‘मातृभाषा के प्रचारक, बिमल बी.ए. पास. सौम्य शीलनिधान, बाबू श्यामसुंदर दास.” और अपने संपादकीय में द्विवेदी जी ने लिखा, ‘‘जिन्होंने बाल्यकाल ही से मातृभाषा हिन्दी में अनुराग प्रकट किया; जिनके उत्साह और अश्रान्त श्रम से नागरी प्रचारिणी सभा की इतनी उन्नति हुई; हिन्दी की दशा को सुधारने के लिए जिनके उद्योग को देखकर सहस्रशः साधु-वाद दिए बिना नहीं रहा जाता; जिन्होंने विगत दो वर्षों में, इस पत्रिका के संपादन कार्य को बड़ी ही योग्यता से निबाहा, उन विद्वान बाबू श्यामसुन्दर दास के चित्र को इस वर्ष, आदि में प्रकाशित करके, सरस्वती अपनी कृतज्ञता प्रदर्शित करती है.”

बाद में सभा से ‘सरस्वती’ का संबंध विच्छेद हो गया जब द्विवेदी जी ने 1904 की ‘सरस्वती’ में नागरी प्रचारिणी सभा की पुस्तक खोज रिपोर्ट की कड़ी आलोचना प्रकाशित की. इसका एक अलग इतिहास है. इस संबंध में बाबू चिन्तामणि घोष ने अपने संपादक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी का कदम- कदम पर साथ दिया. यह उनका बड़प्पन था.

नागरी प्रचारिणी सभा की भाषा नीति उदार थी. दूसरी भाषाओं के जो शब्द सहज ढंग से हिन्दी में आ जाते थे उनसे कोई परहेज नहीं था. सभा के नीति निर्धारको में बाबू श्यामसुंदर दास की मुख्य भूमिका थी. उन्होंने लिखा है, “हम लोगों का यह मत है कि जो शब्द अरबी-फ़ारसी या अन्य भाषाओं के हिंदीवत हो गए हैं तथा जिनका पूर्ण प्रचार है वे हिंदी के ही शब्द माने जाएँ और उनका प्रयोग दूषित न समझा जाएँ.”( मेरी आत्म कहानी, पृष्ठ-24)

नागरी प्रचारिणी सभा को देश भर के अनेक विशिष्ट विद्वानों, बुद्धिजीवियों, रईसों का सहयोग हासिल हुआ. सर आशुतोष मुखर्जी तथा लाला लाजपत राय समय -समय पर सभा के न्यासी मंडल के अध्यक्ष रहे. सर तेज बहादुर सप्रू, मोतीलाल नेहरू, सर सुन्दर लाल, गोविन्द वल्लभ पंत आदि ने समय -समय पर आर्थिक सहयोग दिये. सी.वाई.चिन्तामणि ने सभा की भाषा नीति का हमेशा समर्थन किया. महात्मा गाँधी स्वयं सभा की कार्यकारिणी के सदस्य थे. 1934 में उन्होंने अपने ‘यंग इंडिया’ में सभा की सहायता के लिये सार्वजनिक अपील की थी.

काशी हिन्दू विश्वविद्यालय स्थित ‘भारत कला भवन संग्रहालय’ भी वास्तव में नागरी प्रचारिणी सभा की ही संपत्ति रही है जिसे उसने संरक्षण, संवर्धन और विकास के लिए काशी हिन्दू विश्वविद्यालय को सौंप दिया.

नागरी प्रचारिणी सभा का भवन स्थापत्य कला का बेजोड़ नमूना है. 1903-1904 में आर्यभाषा पुस्तकालय इस भवन में शिफ्ट हुआ था. लगभग सवा सौ साल पुराना यह भवन आज जर्जर हो चुका है. इसके गेस्ट हाउस के दरवाजों और खिड़कियों को दीमक चाट रहे हैं. 1980 में अपने शोध कार्य के उद्देश्य से इस गेस्ट हाउस में मैं पंद्रह दिन तक ठहर चुका हूँ और पुस्तकालय में अध्ययन कर चुका हूँ. दो वर्ष पहले जब वहाँ गया तो उसे देखकर अपने आँसुओं को रोक न सका. सुना है कि हरिद्वार और दिल्ली के भवनों की भी यही दशा है.

सभा की अर्ध शताब्दी वर्ष के अवसर पर स्वामी सत्यदेव परिव्राजक ने हरिद्वार की अपनी सारी संपत्ति नागरी प्रचारिणी सभा को दान कर दिया था. इस पर आज दूसरे लोगों का अवैध कब्जा है. इसी तरह सभा ने दिल्ली में सबसे पहले हिन्दी भवन का निर्माण कराया था. यह भवन पाँच मंजिल का है. यह भी आज सभा के कब्जे में नहीं है.

पिछले कई दशकों से यह संस्था विवाद में है और अपनी बदहाली के अन्तिम चरण में पहुँच चुकी है. उपलब्ध सूचनाओं से पता चलता है कि 1969 ई. में सुधाकर पाण्डेय इसके प्रधान मंत्री बने. कांग्रेस में उनकी गहरी पहुँच थी. कांग्रेस के सांसद भी रहे. वे अपनी मृत्यु पर्यंत अर्थात 2003 तक सभा के प्रधान मंत्री बने रहे और उसके बाद उनके बेटे पद्माकर पाण्डेय सभा के प्रधान मंत्री मनोनीत किये गये. इस तरह सभा पर एक परिवार का कब्जा हो गया.

संप्रति यह संस्था अदालती लड़ाई में उलझ गई है. कोर्ट के आदेश से पदाधिकारियों का चुनाव तो हुआ है और 6 अप्रैल 2023 को उसका परिणाम भी घोषित हो चुका है किन्तु आज भी कुछ मामले कोर्ट के विचाराधीन हैं और सभा आज भी स्वार्थी तत्वों के जाल से नहीं उबर पायी है. आज इसकी अपनी वेबसाइट तक नहीं है. जिन बचे -खुचे कर्मचारियों ने इस संस्था को अपने खून पसीनों से सींचा है उन्हें रोटी के लाले पड़े हैं.

नागरी प्रचारिणी सभा काशी हमारे प्रधान मंत्री के संसदीय क्षेत्र में स्थित है. यह राष्ट्रीय महत्व की संस्था है. हिन्दी के विकास और नागरी के प्रसार के लिए इस संस्था का योगदान अतुलनीय है. इसके साथ ही, देश की आजादी के दौरान यह संस्था स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की समय- समय पर होने वाली बैठकों की गवाह और उनकी शरण स्थली भी रही है.

प्रश्न यह है कि जो सरकार काशी विश्वनाथ कॉरिडोर जैसी बड़ी परियोजना तमाम विरोधों के बावजूद पूरा करने में तनिक भी संकोच नहीं करती वह काशी नागरी प्रचारिणी सभा जैसी ऐतिहासिक और राष्ट्रीय महत्व की संस्था के उद्धार के लिए तनिक भी रुचि क्यों नहीं लेती ?

मैं हिन्दी- हितैषी अपने प्रधानमंत्री जी से अपील करता हूँ कि वे 130 साल पुरानी, काशी की धरोहर नागरी प्रचारिणी सभा को राष्ट्रीय महत्व की संस्था घोषित करते हुए इसका अधिग्रहण करें और इसके उद्धार में स्वयं रुचि लें ताकि भाषा, साहित्य, संस्कृति और कला के इस सर्वाधिक पवित्र तीर्थस्थान को बचाया जा सके.

— डॉ. अमरनाथ
( ‘विश्वा’, अक्टूबर-23 से साभार )