ग़ज़ल
घर का मेरे अभी तक मंजर नहीं देखा
अब चले आओ तुमने मेरा घर नहीं देखा
प्यार करते हैं तुम्हें देखो यही भूलो मत
जो है गहरा ही बहुत उसका असर नही देखा
लग गया था जो बहुत ही ज़ोर से हमको सुन
था रहा कैसा वही तुमने पत्थर नहीं देखा
इस अँधेरे में कहीं जो बिजली चमक जाती थी
छा गया था जो आँखों में वह डर नहीं देखा
प्यार छूटे ही नहीं वो दर्द गहरा होता
जो उबलता लावे – सा यह समंदर नहीं देखा
शूल चुभाती हैं अभी सरदी की ठंडी रातें
जो गड़ा है दिल में वही तो खंजर नहीं देखा
ज़ख़्म बन नासूर तो हम ही कराहते हैं
जो हुआ छलनी अभी तक वो जिगर नहीं देखा
— रवि रश्मि ‘अनुभूति’