बोधकथा

बोधकथा : भीमसेन को बोध हुआ

महाभारत काल की घटना है। एक बार भगवान श्रीकृष्णचंद्रजी और कुंतीपुत्र भीमसेन वन विहार को निकले। श्रीकृष्णचंद्रजी भीमसेन के ममेरे भाई थे। राह चलते दोनों बाल्यावस्था, यौवन व वर्तमान राजपाठ की बातों में मशगूल थे। बीच-बीच में हँसी-ठिठौली भी होती थी। गाँव, पहाड़-पर्वत व जंगल-झाड़ी को पार करते हुए उन्हें पता चला कि वे हस्तिनापुर से बहत दूर निकल चुके हैं। तभी भीमसेन के गठीले शरीर, कद-काठी और मदमस्त चाल देख कर श्रीकृष्णचंद्रजी” बोले- मझले भैया ! आपकी इस विशाल काया में आपकी मदमस्त शाही चाल बड़ी अच्छी जचती है। लौह जैसी छाती व विशाल तरुशाख-सी भुजाएँ हैं आपके पास। आपके बल को तो पूछिए ही मत। मानना पड़ेगा भीम भैया आपको।” श्री कृष्णचंद्रजी की बातें सुन भीमसेन मुस्कुराए।

          बार-बार श्रीकृष्णचंद्रजी से अपनी प्रशंसा सुन भीमसेन को बड़ा अच्छा लग रहा था। मन ही मन फुले नहीं समा रहे थे। अब उनसे भी न रहा गया। बोले- “कन्हैया ! तुम बिल्कुल सही कह रहे हो। इस संसार में मेरे शरीर जैसा किसी का शरीर नहीं है। मेरे बाहुबल से तुम अवगत को ही।”

          भीमसेन की बातों को श्रीकृष्णचंद्रजी कान लगाकर सुन रहे थे। उन्हें मुस्कुराते हुए देख कंधे उचकाते हुए भीमसेन बोले- “कभी-कभी मुझे तो लगता है किसन कि हस्तिनापुर राज्य के आसपास मुझ जैसे विशाल देही बलवान अतीत में न कोई था, वर्तमान में न है; और न कोई भविष्य में होगा।”

          श्रीकृष्णचंद्रजी बोले- “भैया भीम ! आप ऐसा नहीं कह सकते। यह मुझे उचित नहीं लगता। माना कि आप बलवीर हैं। आप भीमसेन हैं। परंतु आपको इस तरह की बातें करना शोभा नहीं देता।”

          मदमस्त चाल चलते हुए मदभरी आवाज में कुंतीपुत्र भीमसेन बोले- “मेरी बातें बिल्कुल सच है किसन। माधव, चाहो तो तुम आजमा सकते हो।” अब तो भीम पर घमंड हावी होने लगा था। श्रीकृष्णचंद्रजी मुस्कुराए। मन ही मन बोले- “आजमाना ही पड़ेगा बलशाली भीमसेन। आजमाइश अब तो आवश्यक है।” वे भीमसेन के व्यर्थ अभिमान को ताड़ गए।

          दोनों आगे बढ़ते हुए एक विशाल घनघोर जंगल में जा पहुँचे। जंगल के मध्य रास्ते में एक नदी पड़ी। उन्हें आगे बढ़ने के लिए नदी को पार करना आवश्यक था। नदी में पानी बहुत कम था; और कीचड़ अधिक। नदी को पार करते समय भीमसेन के दोनों पैर दलदल में फँस गए। पास में खड़े श्रीकृष्णचंद्रजी देख रहे थे; और मुस्कुरा रहे थे। पूछा- “क्या हुआ मझले भैया, आपके पैर कैसे नीचे दब रहे हैं।” भीमसेन बोले- “कन्हैया, मुझे लगता है कि मेरे दोनों पैर किसी ठोस वस्तु में फँसे हुए हैं। पैरों को उठाने की मेरी कोशिश व्यर्थ हो रही है। दोनों पैर धँसते ही जा रहे हैं।

          श्रीकृष्णचंद्रजी बोले- “भीम भैया ! अपने दोनों पैरों को उठाओ। मझले भैया, कहीं अनर्थ न हो जाए। प्रयत्न करो… प्रयत्न करो… और प्रयत्न करो। भीम भैया आप तो बहुत बलवान हैं। आपके पैर भला मामूली से दलदल में कैसे फँस सकते हैं ? और भला वह कौन सी वस्तु हो सकती है, जिसमें आपके पैर धँस सकते हैं ?

          धर्मराज युधिष्ठिर-अनुज भीमसेन अपने पैरों को दलदल से निकाल पाने में असमर्थ होने लगे। अब तो वे कमर तक धँस गए। उन्हें चिंता होने लगी। बोले- यह सब क्या है देवकीनंदन कृष्ण ? यह सब तुम देखते रहोगे क्या ? अपनी बुआ, अर्थात मेरी माता कुंती के मझले पुत्र की रक्षा नहीं करोगे ? मेरी इस दशा को देखते ही रहोगे ? मेरी रक्षा करो माधव। मेरी रक्षा करो द्वारकाधीश। अब तो इस दलदल में दबी वस्तु का रहस्य बताइए।”

         श्रीकृष्णचंद्रजी बोले- “हे पांडववीर ! आपको कुछ नहीं होगा. आप तनिक चिंता न करें। परंतु जिस वस्तु में आपके पैर फँसे हुए हैं, और जिसमें निरंतर धँसते जा रहे हैं; वे एक बलवती व वीरांगना मृत नारी के नवजात शिशु की खोपड़ी के दोनों आँखों के कोटर हैं।”

          “एक बलवती-वीरांगना मृत नारी के नवजात शिशु के दोनों आँखों के कोटर !” भीमसेन को बड़ा आश्चर्य हुआ।

          “हाँ मझले भैया।” श्रीकृष्णचंद्रजी ने मुस्कुराते हुए सर हिलाया।

         “यह कैसे संभव है कन्हैया ?” भीमसेन ने कहा।

         “यह सच है वीरवर कौन्तय।” श्रीकृष्णचंद्रजी अपने कमर पर दोनों हाथों को रख मुस्कुरा रहे थे।

          कैसे…? फिर बताओ किसन इसके संबंध में।” भीमसेन ने उत्सुकता भरे स्वर में कहा।

          “भीम भैया ! आप तो स्वयं को बड़ा बलशाली घोषित कर रहे थे। एको अहं, द्वितीयो नास्ति, न भूतो न भविष्यति…वाली बात कर रहे थे। ऐसा कहना तो छोड़िए, सोचना भी आपको शोभा नहीं देता सर्वश्रेष्ठ गदाधर भीमसेन। किसी को भी अपने बाहुबल पर गर्व करना उचित है, परंतु इस तरह घमंड करना बिल्कुल उचित नहीं है। और आपके लिए तो घमंड एक अशोभनीय वस्तु है मझले भैया। आप उन किसी में से नहीं हैं। इसीलिए तो मैंने आपको नदी के दलदल वाले मार्ग से वनविहार के लिए ले आया। तनिक सोचिए भैया भीमसेन, जिस बलवती व वीरांगना मृत नारी के नवजात शिशु की खोपड़ी की दोनों आँखों के कोटर में आपके दोनों पैर धँसे हुए हैं, वे आँख के कोटर कितने बड़े होंगे। उस नवजात का सिर कितना बड़ा रहा होगा। नवजात की माँ का गर्भ कितना विशाल रहा होगा। इन सबसे आपको एक बात भी समझनी होगी कि उस माँ की देह कितनी विशाल रही होगी। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है भैया भीम, उस बलवती माता के नवजात शिशु का बल अब भी इतना कायम है कि आपके दोनों पैरों को जकड़ रखा है।” श्रीकृष्णचंद्रजी के शांत होते ही भीमसेन नतमस्तक होते हुए बोले- “हे मधुसूदन ! मुझे पूरी बात समझ आ गयी। आपको भी मैं भली भांति समझ गया। मुझे क्षमा करें अपनी इस भूल पर। मुझे अब तो इस संकट से उबारिए।” भीमसेन के दोनों हाथ जुड़ गए। नीलगगन को निहारते हुए आगे बोले- ” हे महानदेवी बलवती-वीरांगना ! आपको और आपके नवजात को मेरा सादर प्रणाम। मुझसे बहुत बड़ी भूल हुई है। हे देवी !मुझे क्षमा करें।”

          तत्पश्चात श्रीकृष्णचंद्रजी ने अपने हाथों से सहारा देकर भीमसेन को दलदल से बाहर निकाला। फिर दोनों अपने मार्ग पर चल पड़े। इस तरह श्रीकृष्णचंद्रजी ने भीमसेन को उनके व्यर्थ अभिमान का उन्हें बोध कराया। 

         बच्चो, तो ऐसे थे हमारे द्वापरयुग-शिरोमणि यदुवर श्रीकृष्णचंद्रजी।

— टीकेश्वर सिन्हा ‘गब्दीवाला’

टीकेश्वर सिन्हा "गब्दीवाला"

शिक्षक , शासकीय माध्यमिक शाला -- सुरडोंगर. जिला- बालोद (छ.ग.)491230 मोबाईल -- 9753269282.