ग़ज़ल
हिफ़ाज़त की जो कसमें खा रहे हैं।
दुकानो घर वही जलवा रहें हैं।
मुसीबत को बढ़ाते जा रहे हैं।
मुसलसल झूठ जो फैला रहे हैं।
उन्हे रोको उन्हे रोको ज़रा सा,
जो मुस्तकबिल बड़ा धुंँधला रहे हैं।
बचाई जान जिनकी दुश्मनों से,
वही तलवार लेकर आ रहे हैं।
नहीं करते हमें रोज़ी मुहैय्या,
पकौड़े धूप में तलवा रहे हैं।
— हमीद कानपुरी