लघुकथा – मांँ की आंँखें
“माँ, यह डिग्री लेकर हम क्या करेंगे, जो पास होने पर हमें कुछ नहीं देती, अब हम पढ़ेंगे नहीं, मांँ। बाहर जाकर कोई काम करेंगे।” होनहार रमेश ने अपनी माँ को आश्वासन देते हुए कहा। क्योंकि घर की स्थिति उसे लाचार कर रही थी।
“बेटा, यह निर्णय तुम्हें और पहले लेना चाहिए था। खैर अभी कुछ बिगड़ा नहीं है लेकिन हाँ बेटे कहीं भी रहना, तुम हमें भुलना मत।” माँ ने अपने बेटे को बल देते हुए आग्रह किया। आग्रह इसलिए कि बहुत बेटे बाहर जाकर अपने माँ-पिता को भूल जाते हैं।
“नहीं माँ नहीं, ऐसा कभी नहीं होगा, मेरे खून में तेरा स्वाभिमान बोलता है।” बेटे ने अपनी माँ को धैर्य देते हुए कहा।
बेटे की बातों से माँ की आँखें भर आई कि मेरा खून इस ज़माने में श्रवण कुमार निकला।
— विद्या शंकर विद्यार्थी