बसन्त
ढोल मृदंग गूंजते
मकरंद की आवाज़ ।
लोग थिरकते महुआ महका।
आमों में मोर लगे हैं ।
आओ तुम भी फ़ागुन में ।
अंतर्मन को महका जाओ
प्रेम जगा दो ।
तनिक तो मुझको छू जाओ न ,
हृदय की वीणा पर
मधुर तान तुम्हारी ।
भली भली सी प्यारी
हाँ जी फ़ागुन में ।
आपस में तुम मिल जुल जाओ।
हंस मुख सा तुम वेश बनाओ ।
होली आई तुम भी आओ
आजाओ न फ़ागुन में ।
बांसुरियां ,घुंगरू की
आवाज़े आतीं।
पलाश से बनता रिश्ता
मन भावन सा प्रिये अपना।
आजाओ न फ़ागुन में ।
सखी सहेली इठलाती
सजती और संवर जाती।
उमंगे लेकर सजना की ।
देखो आजाओ तुम भी
प्यार हमारा फ़ागुन में।
सुहाना बसंत पर्व आनंद ,
उल्ल्हास का ।
राधा और किसन का प्यार
परवान चढ़ा है ,देखो फ़ागुन में ।
दिल हिलोरे लेता
हर कोई रसिया सा अब लगता।
मैं बनूं किसन तुम भी बन के
राधा आजाओ नअबतो फ़ागुन में ।
रोम रोम पुलकित सा हो जाता ।
अंग अंग रंगों में डूबा सजनी ।
ओढ चुनरिया धानी धानी ।
आओ न आजाओ न फ़ागुन में।
नवयौवन सा श्रृंगार तुम्हारा ।
मनुहार की आँखों में भाषा ।
तुम अलसाई भारी मेरी सांसों पर ।
मैं मतवाला फ़ागुन मैं।
मृगनयन सी आंखें तुम अलबेली सी।
जैसे महुवे की मदिरा।
रंग बिरंगा मौसम
सजे हैं टेसू केसरिया से
देखो देोे फ़ागुन में ।
गीत मधुर से मैं भी गाउँ ।
नाचूँ कुदूँ , हो जाऊं , मदहोश ।
बसन्त महकता मकरंद की आवाज़।
रूठो न मुश्ताक , ऐसे तुम भी फ़ागुन में।
— डॉ. मुश्ताक़ अहमद शाह