सोरठा – ज्ञान
बंदर जैसे स्वाद, अदरक का जाने नहीं।
ज्ञान न उसको नाद , जो बहरा है कान से।।
रखे घूमता नित्य, ज्ञान – पोटली शीश पर ।
क्या किंचित औचित्य, सदुपयोग जाने नहीं।।
रखें हृदय में धीर, ज्ञान-पंथ दुर्लभ बड़ा।
चल पाते बस वीर, दोधारी तलवार ये।।
धारण करें सुपात्र, ज्ञान सिंहनी-दुग्ध है।
ग्रहण करेगा मात्र, सोने से निर्मित वही।।
नारिकेल फल एक,बंदर लुढ़काता फिरे।
मानस शेष विवेक, ज्ञान नहीं उसको ‘शुभम्’।।
नहीं ज्ञान – आधार, तन पर धारित वस्त्र का।
करके देख विचार,ज्ञान जीव का तत्त्व है।।
करते नहीं बखान, ज्ञानी अंतर-ज्ञान का ।
ज्ञानी की पहचान, समय पड़े तो काम ले।।
नहीं ज्ञान – पहचान, गाल बजाने से कभी।
कभी न बढ़ता मान,ध्वनि -विस्तारक यंत्र का।।
लेशमात्र भी ज्ञान, भोंपू में अपना नहीं।
उसका करता दान, वक्ता जो भी बोलता।।
दें उसको गुरु ज्ञान, प्रथम शिष्य पहचान कर।
मिटता ज्ञान -निधान, मिलता अगर कुपात्र को।।
दें विद्या का दान, संतति की रुचि जानकर।
अनचाहा नव ज्ञान, बल से कभी न दीजिए।।
— डॉ. भगवत स्वरूप ‘शुभम्’