गांधी जी के नाम पर
गांधी जी के नाम पर
पिछले पच्चीस साल में शायद ही कोई ऐसा दिन गुजरा हो, जब वह शहर में हो और रात को भोजन के बाद वॉकिंग करते हुए दस-पंद्रह मिनट के लिए गांधी चौक में गांधीजी के चबूतरे पर न बैठा हो। मिडिल स्कूल में पढ़ाई के समय की चिंता हो या मां-पिताजी की डांट, शादी के बाद पत्नी से वाद-विवाद हो या बच्चों की पढ़ाई लिखाई का टेंशन, यहाँ आने पर उसे बहुत ही सुकून मिलता था। जैसे गांधीजी कह रहे हों, “चिंता क्यों करते हो। सब ठीक हो जाएगा। तुम अपने कर्त्तव्य पर ध्यान दो। ईश्वर भी उनकी मदद करते हैं, जो अपना कर्त्तव्य निभाते हैं।”
आज भी रात के ग्यारह बजे के करीब वह ऐसे ही वॉकिंग करने के बाद गांधी प्रतिमा के पास बैठा हुआ था। उसे लगा कहीं से ‘हिस्स…हिस्स…’ की आवाज आ रही है। पहले तो वह डर गया, क्योंकि आसपास कोई नहीं था। जब उसने गांधी जी की प्रतिमा को देखा, तो बेहोश होते-होते बचा। गांधी जी के होंठ हिल रहे थे। ‘डरो मत बेटा। मैं तुम्हारा कुछ भी अहित नहीं करूँगा। बेटा, क्या तुम मेरी मदद करोगे ?’
डरते-डरते बोला वह, “जी कहिए, मैं आपकी क्या मदद कर सकता हूँ ?”
गांधी जी बोले, “बेटा, लोग अब मुझे सिर्फ नाम और फोटो से जानते हैं। सिद्धांत तो शायद ही कोई जानता और मानता हो।”
“तो, इसमें मैं क्या कर सकता हूँ ?” उसने पूछा।
“तुम मेरी इस प्रतिमा को पिछले पच्चीस साल से देख रहे हो। साल में दो बार जयंती और पुण्यतिथि पर मेरी पूछ परख होती है, फिर धूल खाता रहता हूँ। इसलिए तुम मेरी इस प्रतिमा को तोड़ दो। सुबह मीडिया में खबर आते ही लोग चर्चा करने लगेंगे गांधी और गांधी विमर्श पर।”
उसने गांधी जी को समझाया, “बापू जी, आप आजकल के लोगों को नहीं जानते। वे विमर्श क्या करेंगे, उलटे मारकाट मचा देंगे।”
पर गांधी ठहरे जिद्दी सत्याग्रही, नहीं माने। अंत में उसने गांधी जी के बहुत जोर देने पर चुपके से उनका चश्मा निकाल कर नीचे पटक कर तोड़ा और चलता बना।
उसकी आशंका निर्मूल नहीं थी। यह घटना सुबह होते तक न्यूज चैनल और अखबार की सूर्खियों में थी। पूरे देश में दंगा भड़क चुका था। उसे तसल्ली थी कि चश्मा टूटा हुआ होने से गांधी जी इस खूनखराबा को अपनी आंखों से नहीं देख रहे थे। वैसे पहले भी उनके नाम पर होने वाली मारकाट को कहाँ देख पाते थे, उनके चश्मे में धूल की मोटी परत जो जमी होती थी।
– डॉ. प्रदीप कुमार शर्मा
रायपुर, छत्तीसगढ़