ग़ज़ल
महफिल की तनहाई से कभी चीख रहे सन्नाटों से
धीरे-धीरे सीख रहा हूँ बचना झूठी बातों से
शाम हुई साये की तरह ही तू भी छोड़ गया मुझको
तुझसे कोई गिला नहीं सब शिकवा है हालातों से
सब्ज़ हुए हैं ज़ख्म भी सारे देखो साथ दरख्तों के
दिल के खलिहानों में जैसे आग लगी बरसातों से
तेरे बिन मेरी दुनिया का हाल हुआ है कुछ ऐसा
चाँदनी जैसे रूठ गई हो तनहा, काली रातों से
तमगों जैसा सजा लिया है हमने सारी यादों को
सारा सीना भरा हुआ है तेरी ही सौगातों से
और किसीको कहने से पहले मुझको बतला देना
थक जाओ जब खेल-खेल के तुम मेरे जज़्बातों से
— भरत मल्होत्रा