दोहे
प्रतिरोध के दोहे
लोभी ढोंगी लालची,झूठे चोर लबार।
बन बैठे जनतंत्र के ,सारे पहरेदार।।1
सूरज कहता मैं हरूँ,धरती का अँधियार।
मुझको नहीं पसंद है,जुगनू का किरदार।। 2
गाँवों में खंभे गड़े ,खिंचे हुए हैं तार।
बिल आते बिजली नहीं,किससे करें गुहार।।3
चेहरे पर मासूमियत, दिल में है तूफ़ान।
अपना हक़ है माँगता,हर मज़दूर किसान।।4
मिलती है सम्मान निधि,नहीं फ़सल के दाम।
बँटता राशन मुफ्त में, हाथ हुए बेकाम।।5
हाथ जोड़ सरकार को,करती क़लम सलाम।
करे न सच का सामना,लिखे सुबह को शाम।।6
मंदिर में घंटा बजे, होता मंत्रोच्चार।
बाहर भिक्षुक माँगते ,बैठे हाथ पसार।।7
चाँद, चाँदनी-सा नहीं,लिखना सुंदर गीत।
उसमें होना चाहिए ,पतझड़ का संगीत।।8
नहीं किसी से मन मिला,और न आए साथ।
रहे मिलाते उम्र भर ,बस लोगों से हाथ।।9
पैसे की किल्लत हुई, गई पढ़ाई छूट।
बीड़ी, गांजा, भांग से ,रिश्ता बना अटूट।।10
नारी ढके न जिस्म को,नर न झुकाए दृष्टि।
नैतिकता के पतन की, हुई राष्ट्र में सृष्टि।।11
धोखा खाता है नहीं, यों ही तो इन्सान।
करना पड़ता है भला,लोगों का श्रीमान।।12
तोड़ दुकानें कर गए ,चौपट कारोबार।
रहे देखते दूर से,सब टी.वी. अखबार।।13
राजमार्ग से जुड़ गया,जबसे अपना गाँव।
पैदल चलना कठिन है,जलने लगते पाँव।।14
उस घर को कैसे कहूँ,शिक्षित और समृद्ध।
मान न नारी का जहाँ,निष्कासित हैं वृद्ध।।15
हारे-जीते सब रहे,पाँच साल तक मूक।
हर दल ने खोला पुनः,वादों का संदूक।।16
पत्नी को पट्टा दिया,ताल और खलिहान।
वोटर ने फिर से चुना,उसको ग्राम प्रधान।।17
देखा जब उनको,खुली,सपनों की तहसील।
दिल कर बैठा मुकदमा,धड़कन बनी वकील।।18
चेहरे पर मासूमियत,धारे वस्त्र सफेद।
सदा व्यवस्था में किए,ऐसों ने ही छेद।।19
कौन करेगा फ़ैसला, देगा कौन दलील।
बन बैठा है मुद्दई, मुंसिफ़ और वकील।।20
जो थे सच के साथ वे,खीसे रहे निपोर।
सच को झूठा कर गए, चोर मचाकर शोर।।21
जहाँ कहीं बरसात में,जल का हुआ जमाव।
पहुँचा दी सरकार ने,वहाँ-वहाँ पर नाव।।22
रोज़गार पर देश की,जनता करे सवाल।
सरकारें बस धर्म का,फेंक रही हैं जाल।।23
जिनके भ्रष्टाचार की ,चर्चा है सर्वत्र।
न्याय करो,सरकार को,वे ही लिखते पत्र।।24
नैतिकता के शीर्ष पर,पहुँचा हिंदुस्तान।
चोर उचक्कों को कहें,माननीय श्रीमान।।25
लोकतंत्र में हो रहा,सपनों का व्यापार।
जनता मालिक नाम की,नेता की सरकार।।26
बसा हुआ मन में रहे ,कथनी करनी भेद।
काली काया धारती,ज्यों तन वस्त्र सफेद।।27
धर्म भीरु इंसान ही,रहे सदा भयभीत।
मंदिर के पाषाण से,होती उसकी प्रीत।।28
आम आदमी है दुखी ,झेल रहा संत्रास।
कागज पर सरकार ने,ऐसा किया विकास।।29
जीजाबाई -सा नहीं,माँओं का किरदार।
वीर शिवाजी देश में ,कैसे हों तैयार।।30
शब्दों में ढाली गयी, अंतर्मन की पीर।
आ जाती है सामने,धरकर काव्य शरीर।।31
गारंटी के दौर में, सब हैं मालामाल।
नेता चालें चल रहे,बना धर्म को ढाल।।32
अन्न नहीं है पेट में, तन पर बचा न चीर।
पागल का तमगा मिला,सुने न दुनिया पीर।।33
जैसा कल था है नहीं,वैसा बिल्कुल आज।
बदल गया है बहुत कुछ ,बेपर्दा है लाज।।34
जब भी टूटा काँच तो ,आया सिर इल्जाम।
किया जगत ने व्यर्थ में,पत्थर को बदनाम।।35
डाॅ बिपिन पाण्डेय