रिश्तों की खिचड़ी
रिश्तों की खिचड़ी
“माँ-बाबू जी तो अब रहे नहीं, पर उनकी इच्छा का मान रखने के बहाने ही सही, हम लोग साल में एक बार सबसे मिल तो लेते हैं।” बड़ी बहू ने किचन में चावल धोते हुए कहा।
“हाँ, कितना खुश हो जाते थे बाबू जी हम सबको त्योहार पर एक साथ देखकर। लगता था मानो वे सालभर इसी दिन का इंतजार करते हों।” छोटी बहू ने दाल चढ़ाते हुए कहा।
“सच कहूंँ दीदी तो हम लोग भी तो इस दिन का इंतजार करते हैं कि कब दिवाली आए और हम सब यहाँ पहुँचकर एक साथ त्योहार मनाएँ। बच्चे भी तो कितने लालायित रहते हैं अपने परिजनों से मिलने के लिए।” मंझली बहू ने सब्जी काटते हुए कहा।
“हाँ, रोजी-रोटी के लिए भले ही हम सब अलग-अलग शहरों में रहते हों, पर दिवाली पर आगे भी यहाँ जरूर आएँगे और मिलकर त्योहार मनाएँगे। तुम्हारे जेठ जी भी कह रहे थे कि हम सबका साल में कम से कम एक बार मिलना जरूरी है। कहीं ऐसा न हो कि कल को हमारे बच्चे अपने भाई-बहनों को ही न पहचान सकें।” बड़ी बहू ने कहा।
“हाँ दीदी, भैया एकदम सही कह रहे हैं। जब तक हमारे बच्चे अपने भाई-बहनों के साथ कुछ खूबसूरत पल नहीं बिताएँगे, तब तक उनमें प्यार और अपनेपन का भाव कैसे पनपेगा ?”
“तो तय रहा कि जब भी समय मिले, हम लोग एक दूसरे के यहाँ आते-जाते रहेंगे, पर दिवाली में आवश्यक रूप से सभी सपरिवार यहाँ गाँव आएँगे।” बड़ी बहू ने कहा।
“क्या खिचड़ी पका रही हैं तीनों बहुएंँ ?” किचन के बाहर नटखट देवर जी की आवाज सुनकर बड़ी बहू ने जवाब दिया, “रिश्तों की खिचड़ी।”
और तीनों बहुएँ खिलखिलाकर हँस पड़ीं।
-डॉ. प्रदीप कुमार शर्मा
रायपुर, छत्तीसगढ़