अब भी
अब भी शरीर से बेडौल हो गयी लड़कियां पहनती हैं
ढीले और हल्के रंग के वस्त्र
अब भी वे चलती हैं नज़रें नीची करके
उनके कंधे भी झुके होते हैं नज़रों से भी कहीं अधिक
अब भी कोई हमउम्र नहीं देखता उनके लिए सपने
उनके हिस्से नहीं आया है प्रेमी का सुख
अब भी वे नहीं हंस पाती हैं खिलखिलाकर
दब जाती हैं उनकी हंसी उनके वजन के बोझ तले
अब भी उनकी सखी-सहेलियां देती हैं ताने
नहीं करती शामिल उनको अपनी हँसी ठिठोली में
बहुत कुछ बदला है इन सालों में
नहीं बदली है स्थूलकाय लड़कियों के लिए दुनिया
मनुष्य जरूर पहुंचा है चाँद और मंगल पर
लेकिन नहीं बदली उसकी सोच शरीर को लेकर।
— संदीप तोमर