गीतिका/ग़ज़ल

ख़ुदग़र्ज़ी”

ए जीव तू अहं की यात्रा पूरी करके  आगे तो  निकल आया,

कितना बेखबर है अपनों का काफ़िला तो पीछे छोड़ आया।

आज तू अकेला वारिस है आसमान का इतरा लें अभिमानी,

कल पता चलेगा  ज़िंदगी में सन्नाटे का ये  कैसा मोड़ आया।

वक्त आज तेरा मलंग है कल  तेरी जगह कोई और ले लेगा,

सोचता रह जाएगा तू मुझसे बेहतर मुतक़ाबिल कौन आया।

न कोई तेरा  हबीब रहेगा  न मंज़र ही महफ़िल  वाला होगा,

पछताते यही कहेगा अपनों के मेले से क्यूॅं मुख मोड़ आया।

ख़ातिरदारी खुद के सपनों की करते-करते कितना भरमाया, 

जेब में थे जो कंचे इमानदारी के गरजपरस्तों को बेच आया।

सफ़र में आते हैं सौ मोड़ मूड़ जा हमनवा हज़ार मिल जाएंगे,

भले तू खुदगर्ज़ी में अपनों से सदा के लिए नाता तोड़ आया।

वक्त है  अभी भी दावत दे दे जो  तेरे होंगे वो दौड़ते आएंगे,

इतने अपनों के बीच चार कॅंधों का जुगाड़ तू न जोड़ आया।

— भावना ठाकर ‘भावु’

*भावना ठाकर

बेंगलोर