ग़ज़ल
आगे क्या होगा ये अक्सर सोचता रहता हूँ मैं
सोच कर फिर बेवजह ही खौलता रहता हूँ मैं
लफ़्ज़ों की लौ से गरम रखता हूँ मैं रिश्ते सभी
और वो कहते हैं हरदम बोलता रहता हूँ मैं
आँखों में, बातों में, शेरों में, अदाओं में कभी
तुझमें ही खुद को मुसलसल ढूंढता रहता हूँ मैं
जानता भी हूँ न पूरे होंगे मेरे ख्वाब ये
बेवजह ही फिर भी इनको देखता रहता हूँ मैं
बढ़ती ही जाती हैं आगे उफ़क जैसे ख्वाहिशें
और दीवानों सा पीछे दौड़ता रहता हूँ मैं
— भरत मल्होत्रा