कविता

कविता – बुढ़ापे का दर्द

खुँटी पर टँगा पुराना कोट

जैसी हो गई है जिंदगी

 परिवार में “हूँ” भी,

“नहीं हूँ” भी;

काश इंसान भी होता कोट जैसा

निर्जीव, संवेदना शून्य;

बुढ़ापे के दर्द का

अहसास नहीं होता।

— निर्मल कुमार दे

निर्मल कुमार डे

जमशेदपुर झारखंड [email protected]