कविता
दबाकर दर्द सीने में
वो हंसती मुस्कुराती है
जो होती है अकेले में
जख्म अपने सहलाती है
रहे सब खुश यही ख्याल
मन में अपने सजाती है
जिंदगी की हर सुबह-शाम
अपनों के नाम करती है
जी करता है पर उसका भी
पंख फूटे मन की चिरैया की
फिर नैनो में भरकर सपने सुहाने
उड़ जाए कहीं दूर गगन में
पर जिम्मेदारी का पाठ उसे
देता नहीं आजादी
पग पग पर मिलते हैं ताने
होती है रुसवाई
पर हौसला है उसमें तोड़ देगी एकदिन
इन बन्दिशों का बांध
और बहेगी आजाद नदी के मानिंद।
— बबली सिन्हा ‘वान्या’