कविता – हाशिए का आदमी
हाशिए पर खड़ा आदमी
धूप में झुलस जाता है मूक होकर
क्योंकि वह सूरज के खिलाफ विद्रोह करना नहीं जानता
वह हवा के खिलाफ बगावत नहीं करना चाहता
क्योंकि उसे हवा का न तो रुख भांपना आता है
और न ही हवा के साथ साथ चलना ।
हाशिए का आदमी
इतना भोला है कि आज भी
बरसने और गरजने वाले बादलों में फर्क नहीं कर पाता
और हर बार ठगा जाता है ।
इतना निहत्था है यह है कि
इससे सभी हथियार छीन लिए गए हैं
ताकि यह कभी सत्ता के खिलाफ विद्रोह न कर सके ।
प्रलोभनों की प्रवंचना और यथार्थ की इबारत के बीच
खिंची महीन रेखा इसे न तो पढ़नी आती है और न वाचनी
इसलिए हर बार
इसके हिस्से भूख लिख दी जाती है ।
हर चक्रव्यूह इसके आसपास ही रचा जाता है
और हर बार इसका ही बध हो जाता है
बड़े-बड़े बैनरों नारों के बीच इसका हिस्सा बांटने वाले
हर बार इसका हिस्सा खा जाते हैं ।
वह न आंकड़ों का गणित जानता है और
न ही भाषणों की प्रवञ्चना
हर बार वह पत्तों की तरह नारों कि बयार में बह जाता है …।।
— अशोक दर्द