स्वास्थ्य

भारतीय ज्ञान परम्परा द्वारा कैंसर और अन्य असाध्य रोगों अथवा उनके कष्टों से मुक्ति


[संवाद शैली क्यों? सदियों से प्रश्न अर्थात् जिज्ञासा और उत्तर यानी समाधान को ज्ञान के आदान-प्रदान का श्रेष्ठ मार्ग माना गया है, भक्त ध्रुव ने अपनी माता सुनीति से प्रश्न किया था, नचिकेता ने भगवान यमराजजी से, विदेहराज जनक ने महात्मा अष्टावक्रजी से और महात्मा अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण से. इसीलिए कैंसर जैसे असाध्य रोगों से मुक्ति अथवा उनके कष्टों में कमी की दृष्टि से संवाद शैली अथवा बातचीत का उपयोग किया गया है. छोटे-छोटे पैराग्राफ होने तथा प्रश्नों में बाल सुलभ जिज्ञासा होने से थोड़ी रोचकता भी अपने आप आ जाती है और पाठक भी सोचने लगता है कि यदि मैं होता तो मैं भी यही प्रश्न करता. एक कुतूहल बना रहता है. अर्थ यह है कि व्यक्ति उसमें समरस या इन्वाल्व होने लगता है. बातचीत के कारण नीरसता [मोनोटोनी] और विषय से भटकाव से भी मुक्ति मिल जाती है. वर्तमान में चिकित्सा शिक्षा तक में रटन्त विद्या हावी हो गई है. इस कथा का नायक आधुनिक चिकित्सक है और सह नायक पूर्वजन्म में आयुर्वेद में रुचि रखने वाला विज्ञान का छात्र. इस बड़ी-सी कथा की रचना शिवजी की कृपा से हुई है.]
रात के बारह बजे थे, डॉ. विक्रम अपने कक्ष में माथे पर हाथ रखकर, उदास और चिन्ता के साथ विचारों में खोया हुआ बैठा था. तभी बेताल ने उसके कक्ष में प्रवेश किया और कंधे पर हाथ रखते हुए बोला- मित्र ! क्यों इस तरह निराश, उदास और चिन्तित हो? कुछ बताओ, हो सकता है कि मैं कुछ सहायता कर सकूं.
विक्रम- मित्र ! पूरे विश्व में कैंसर के रोगियों की संख्या तेजी से बढ़ रही है और इस रोग से ग्रस्त लोगों को अत्यधिक दुखी, निराश और हताश देखकर मुझे बहुत पीड़ा हो रही है. अनेक रोगियों को तो इतना दर्द होता है कि वे सहन नहीं कर पाते है और लगातार तड़फते रहते हैं. मैं उनकी पीड़ा देख भी नहीं पाता हूँ, वे बेचारे कैसे सहन करते होंगे? उनके प्रियजनों को कितना दुःख होता होगा, कल्पना नहीं की जा सकती है. आर्थिक रूप से समर्थ रोगियों को भी यह रोग बहुत भारी पड़ता है और जो गरीब हैं, उनकी असहाय स्थिति की कल्पना करके ही काँप जाता हूँ. मैं रोगियों और उनके परिजनों के दुःख-दर्द को दूर करने के लिए कुछ करना चाहता हूँ, इसलिए चिन्तन कर रहा हूँ. भगवान की बड़ी कृपा है कि तुम आ गए हो. तुम्हीं बताओ, हम क्या कर सकते हैं?
बेताल- मित्र ! बुरा मत मानना, व्यक्ति अपने दुःख, दरिद्रता, रोग, शोक, चिन्ता का स्वयं ही कारण होता है, इसमें किसी दूसरे या भाग्य की कोई भूमिका नहीं है. गीताजी, श्रीरामचरितमानस और जैन शास्त्रों में यही लिखा है. पैसा, प्रतिष्ठा और पद पाने की अंधी दौड़ और होड़ में व्यक्ति नैतिकता, मनुष्यता, सहजता, स्वास्थ्य, मन की शान्ति, पारिवारिकता, रिश्तों की आत्मीयता, सामाजिकता और अन्तरात्मा [जमीर] को खर्च करता चला जाता है.
विक्रम [बात काटकर टोकते हुए] – मित्र ! ये सब बातें पूरी तरह सच हैं, परन्तु अभी तो हमें इनकी पीड़ा कम करने के बारे में सोचना है.
बेताल- मित्र ! मैं तो जड़ों को पानी देने के बारे में सोच रहा हूँ और तुम पत्तों की चिन्ता कर रहे हो. मैं सोच रहा हूँ कि रोग हो ही नहीं या रोगों का प्रकोप बहुत कम हो जाए.
विक्रम- बेताल ! स्पष्ट बताओ, क्या कहना चाहते हो.
बेताल- मित्र विक्रम ! यदि मेडिकल कॉलेजों में प्रथम वर्ष के विद्यार्थियों को आयुर्वेद और वेदादि के स्वास्थ्य ज्ञान विषयक अधिकतम पन्द्रह-बीस श्लोकों आदि का अर्थ, उनकी विस्तृत व्याख्या तथा उनकी व्यक्तियों के जीवन में व्यावहारिक उपयोगिता [प्रैक्टिकल अप्लिकेबिलिटी और यूटिलिटी] पढ़ा दी जाए तथा आयुर्वेदिक दिनचर्या के निर्देशों को आधुनिक वैज्ञानिक अनुसंधानों के आधार पर समझा दिया जाए तो वे विश्व के श्रेष्ठ चिकित्सक सिद्ध होंगे, साथ ही रोगियों की रिकवरी बहुत तेज हो सकती है और भविष्य में न केवल कैंसर बल्कि सभी रोगों का प्रकोप जापान के ओकीनावा और अन्य ब्लू जोंस स्थानों जैसा अर्थात् बहुत ही कम हो जाएगा.
विक्रम की आँखें फैल गई और उसने आश्चर्यचकित होकर प्रश्न किया – मित्र ! क्या तुम पूरी तरह होश में तो हो ना ?
बेताल- मित्र ! सौ प्रतिशत सजग और कान्शियस हूँ और अभी मैं मात्र तीन-चार श्लोकों का सार तुम्हें बताने जा रहा हूँ. आचार्य चरक ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि “यदि व्यक्ति अपनी बुद्धि का दुरुपयोग करता है अथवा धैर्य को खोकर आवेश में अथवा अपने ज्ञान को भुलाकर जो भी अशुभ कार्य करता है तो वह रोगग्रस्त होगा ही. कपट, रिश्वत, धोखाधड़ी, साजिश, शोषण, ठगी, मिलावट, किसी का अधिकार छिन कर अयोग्य को देना आदि ऐसे सभी कार्य बुद्धि की विकृति से उत्पन्न अशुभ कर्म हैं. क्रोध, काम-वासना के आवेग आदि में किए गए बलात्कार, हिंसा, हत्या आदि धीरता को खोने से होने वाले अशुभ कर्म माने गए है. इसी तरह जानते हुए भी माता-पिता-गुरुजनों-भाई-बहनों तथा उपकारियों के उपकारों या अपनी मर्यादा भूलकर उनका अपमान या अनदेखी करना, अन्याय करना. जो खाने-पीने योग्य नहीं हैं, उन वस्तुओं का सेवन करना. जानबूझते गलत आचरण करना, ये स्मृति के भ्रष्ट होने से उत्पन्न अशुभ कर्म हैं. रोग चाहे अशुभ कर्मों से हुए हों अथवा अन्य कारणों, उनका उपचार और स्वस्थ रहने के सूत्र बताते हुए महर्षि चरक लिखते हैं कि स्वस्थ और अनुशासित जीवनशैली, अच्छी बुद्धि, सत्यनिष्ठता, मन्त्रों का जाप, रत्न धारण, उपवास, परोपकार, क्षमाशीलता और प्रायश्चित, दान करना, हवन करना. कल्याणकारी प्रवचनों को सुनना. घर के वृद्धों के प्रति अच्छा व्यवहार एवं पूर्ण सम्मान तथा निर्धनों-निराश्रितों के प्रति करुणा का भाव. तीर्थों के दर्शन, वन में भ्रमण या हरियाली में टहलना. शुद्ध एवं सात्विक आहार, अच्छा आचरण, सज्जनता को अपनाना. शत्रुभाव, लालच, ईर्ष्या, द्वेष आदि नहीं करना, बुरे, अश्लील, अहितकारी विषयों से मन को हटाना. समता भाव अर्थात् इस भाव को धारण करना कि सभी प्राणियों में भगवान का वास है. यदि किसी भी रोग से ग्रस्त व्यक्ति इनका पूर्ण पालन करें तो वह या तो रोग से पूर्ण मुक्त हो जाएगा अथवा रोग से होने वाली पीड़ा, दर्द, कष्ट आदि बहुत ही कम हो जाएंगे.
विक्रम ध्यान से सुनता रहा और इतनी सारगर्भित बातें सुनकर विक्रम आँख मूंदकर गहरे सोच में डूब गया, उसके सामने उसका चिकित्सा छात्र के रूप में बीता सारा जीवन चलचित्र की तरह दौड़ने लगा. उसे लगा कि एम.बी.बी.एस., एम.डी. और एम.एस. के दौरान लगभग दो सौ शिक्षकों और इतनी ही पुस्तकों तथा उसके द्वारा अटेंडेड सौ से अधिक राष्ट्रीय, अन्तरराष्ट्रीय और प्रादेशिक वैज्ञानिक सम्मेलनों से उसे ऐसा ज्ञान नहीं मिला था. उसे अचानक क्रिस्टोफ रेंडलर, नोबेल विजेता डॉ.एलेक्सिस कैरेल, प्रोफ.रॉब रीड, प्रोफ.राबर्ट इमेंस, डॉ. फ्रेड लस्किन, , डॉ. विलियम बर्ड, डॉ. फिलिप बर्र आदि पचास से अधिक वैज्ञानिकों के अध्ययन तथा उनके द्वारा लिखी पुस्तकें याद आ गईं, जो भारतीय स्वास्थ्य ज्ञान परम्परा और आयुर्वेद के दिनचर्या विषयक निर्देशों से प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से जुड़ी हुई थी. वह मन ही मन आचार्य चरक के इन श्लोकों को उन शोधों से जोड़ रहा था. उसे लग रहा था कि ये छोटे-छोटे सूत्र कैंसर ही नहीं बल्कि सभी तरह के रोगों से ग्रस्त व्यक्तियों के कष्टों को उल्लेखनीय [सिग्नीफिकेंट] रूप से कम कर सकेंगे. उसके चेहरे पर ऐसी संतुष्टी छा गई थी, जिससे कोई भी समझ सकता था कि उसको ज्ञान का खजाना मिल गया है.
इतने में बेताल ने विक्रम का कंधा पकड़कर हिलाया और कहा मित्र ! कहाँ खो गए हो? क्या मेरी बातें बकवास थी?
विक्रम [विचारों की तन्द्रा से अनिच्छा से जागते हुए] –नहीं मित्र ! मस्तिष्क को झकझोरने वाली [ब्रेन स्टोर्मिंग] तुम्हारी बातों ने मुझे हिलाकर रख दिया है. तुमने जो बताया है, वह अद्भुत है. इट्स बियाण्ड माय इमेजीनेशन. तुमने मेरे भीतर आयुर्वेद को पढने की तीव्र इच्छा पैदा कर दी है. [बहुत उत्साहित होते हुए विक्रम बोला]- बेताल ! मैं अवश्य ही आयुर्वेद पढूंगा.
बेताल- मित्र ! ठीक है, तुम्हे पढ़ना ही चाहिए परन्तु अभी हम कैंसर के रोगियों के कल्याण के बारे में चर्चा कर रहे थे. मेरा विचार है कि हमें उसी पर सोच-विचार करना चाहिए.
विक्रम [बेताल को कसकर स्नेह से गले से लगाते हुए] बोला – मित्र बेताल ! मैं तेरा जीवनभर आभारी रहूंगा, तूने आचार्य चरक के श्लोक सुनाकर मुझ पर बहुत बड़ा उपकार कर दिया है. इनके आधार पर मैंने सभी तरह के रोगियों को उनके कष्टों से मुक्त करने के सूत्र सोच लिए हैं. तूने मेरी सारी चिन्ताएं दूर कर दी, अब मैं रोगियों को कष्ट दूर कर सकूंगा.
बेताल आश्चर्य से बोला- मित्र विक्रम ! अभी तो हमने सोचना शुरू भी नहीं किया था और तुम्हें समाधान कैसे मिल गया है?
विक्रम- मित्र ! मैं एक चिकित्सा विद्यार्थी हूँ, चिकित्सा विद्यार्थी को एकाध सूत्र हाथ में आ जाता है तो फिर वह रोगों की जड़ों तक पहुँच ही जाते हैं, इसीलिये पेशेंट की रोग सम्बन्धी डिटेल हिस्ट्री लेते हैं, शरीर का परीक्षण करते हैं, इस तरह सूत्र खोजने का प्रयास करते हैं ताकि सटीक निदान कर सकें, इसे मेडिकल की भाषा में डिफ्रेंशियल डायग्नोसिस कहते हैं.
बेताल [आश्चर्यभाव से] बोला- मित्र ! वास्तव में तुम अद्भुत हो. बताओ तो कैंसर के रोगियों की पीड़ा कैसे दूर करोगे?
विक्रम- मित्र ! डॉ. ओट्टो वारबर्ग को कैंसर के कारण की खोज के लिए नोबेल सम्मान मिला था, उन्होंने बताया था कि कोशिका के स्तर पर प्राणवायु की कमी से कोशिकीय अम्लता [सेल्युलर एसिडिटी] हो जाती है, वह कैंसर का कारण बनती है. एक अनुमान के अनुसार कैंसर के प्रमुख कारणों में 34% खानपान, 30% धूम्रपान, 5% व्यायाम नहीं करना, 10% जेनेटिक, तथा 21% में अन्य अनेक कारण बताए गए हैं.
बेताल- मित्र ! अपने आत्मिक ज्ञान [इंट्यूशन] के आधार पर मेरा दावा है कि दुनिया के लगभग 70-80% रोगों के मूल में सेल्युलर एसिडिटी का ही हाथ है. तुम चाहो तो शोध भी कर सकते हो.
विक्रम [चौंकते हुए] – अरे..गजब, इर्रिवर्सिबल शॉक में भी तो सेल्युलर एसिडिटी होती है, तुम्हारी अन्तरात्मा की आवाज है तो मैं अवश्य ही शोध करूंगा. अब मैं तुझे बताता हूँ कि कैंसर और अन्य असाध्य या इन्क्युरेबल रोगों से पीड़ित लोगों को क्या करना चाहिए और उनकी दिनचर्या कैसी हो.
बेताल- मित्र ! अवश्य बताओ, परन्तु तुम्हारा मुख्य लक्ष्य क्या है, पहले वह बता दो.
विक्रम-मित्र ! रोगी के द्वारा लिए गए अशुभ कर्मों का प्रायश्चित, रोगी के शरीर में प्राणवायु [ऑक्सीजन] का स्तर बढ़ाना, इम्युनिटी बढ़ाना, मनोबल बढ़ाना, जीवन और मन में सकारात्मकता लाना, रोगकारी रसायनों को कम करना, रोगग्रस्त कोशिकाओं को समाप्त करना, दर्दनाशक, फील गुड और प्रसन्नता देने वाले रसायनों की मात्रा बढ़ाना साथ ही सेल्युलर एसिडिटी पैदा करने वाली खाने-पीने की चीजों से बचाना तथा तनाव, क्रोध और नकारात्मकता बढाने वाले विचारों से बचाना और रोग को जड़मूल से मिटाने के लिए रोगियों के अवचेतन मन की शक्ति और भगवान की कृपा का उपयोग करना.
बेताल- मित्र ! क्या बात है, यह तो रोगों से मुक्ति की एकदम सटीक रणनीति है, अब विस्तार से बताओ, मैं बहुत उत्सुक हूँ.
विक्रम ने लम्बी सांस ली और बोलना शुरू किया- मित्र बेताल ! सभी रोगी प्रतिदिन सुबह साढ़े पांच छह -बजे जागें, इस समय जागने से व्यक्ति की इम्युनिटी बढ़ती है. इंग्लैंड के सेम्युअल जोन्स और माइकल विडान ने सात लाख लोगों पर आनुवांशिक वेरिएंट तथा जीनोम के आधार पर अध्ययन कर बताया कि जल्दी जागने वालों का मधुमेह, मोटापा, रुग्ण मानसिकता आदि से बचाव होता है. जागने के बाद बिस्तर पर ही करुणाभाव से, पूर्ण समर्पणभाव [सरेण्डर] से, ह्रदय की गहराइयों से भगवान से प्रार्थना करना चाहिए कि “हे परमात्मा ! मैं पूरीतरह आपके भरोसे हूँ, मुझे रोग और उसके कष्टों से जल्दी से जल्दी मुक्त करने की कृपा कीजिए.” यह प्रार्थना रात में सोने से पहले भी पूर्ण आस्था और विश्वास से करना चाहिए. यह भाव अपने भीतर विश्वास के साथ भर लेना चाहिए कि मैं निरन्तर स्वस्थ हो रहा हूँ. डॉ. विलियम ए. नोलेन की पेशेंट ब्रिटेन की बावन वर्षीय एलेन थायर को बायोप्सी के बाद मलाशय का कैंसर [कार्सीनाइड] डायग्नोस हुआ था. ऑपरेशन की तिथि तय कर उसे घर भेज दिया गया. ईश्वर पर गहरी आस्था रखने वाली एलेन ने प्रतिदिन भगवान से पूरे मनोभाव के साथ प्रार्थना की और कुछ ही माह में वह कैंसर से मुक्त हो गई. इस विषय में साइंस डाइजेस्ट [दिसम्बर 1982] में “दी वुमन हु सेड नो टू कैंसर” शीर्षक से लेख छपा था. शेरवुड एडी ने अपनी पुस्तक “यू विल सरवाइव आफ्टर डेथ” में प्रार्थना से स्वस्थ हुए लोगों की घटनाओं के बारे में लिखा है. लन्दन के एक खेल प्रशिक्षक डब्ल्यू टी. पारीश की कैंसरग्रस्त पत्नी के प्रार्थना से रोगमुक्त होने की घटना भी इस पुस्तक में है. रॉयल कॉलेज ऑफ सर्जन्स,लन्दन के वरिष्ठ सदस्य डॉ. होवार्ड समरवेल ने अपनी पुस्तक “आफ्टर एवरेस्ट” में ऐसे अनेक रोगियों का उल्लेख है, जिन्होंने प्रार्थना से असाध्य रोगों से मुक्ति पाई थी. बेताल ! ऐसे अनेक रोगी हैं, जो प्रार्थना के कारण अपने लाइलाज रोगों से मुक्त हुए हैं, इनके बारे में कई वैज्ञानिकों ने अपनी पुस्तकों में लिखा है.
बेताल- मित्र ! मुझे भी एक घटना याद आ गई, 1917 की बात है, एक बालक को स्पाइनल कार्ड की टीबी हो गई थी और उसे असाध्य घोषित करते हुए कहा गया था कि यह अधिक समय तक जीवित नहीं रहेगा. घुटनों के बल चलने वाले उस बालक का शरीर टेढा-मेढा था. प्रार्थना का ऐसा असर हुआ कि वह एक मजबूत, सीधा और सुगठित शरीर वाला बन गया.
विक्रम- मित्र ! क्या तुम फ्रेडरिक एलियास एंड्रयूज की बात तो नहीं कर रहे हो.
बेताल- हाँ, मित्र उसी की ! अच्छा यह बताओ कि प्रार्थना के लिए किन शब्दों का उपयोग करना चाहिए?
विक्रम- मित्र ! प्रार्थना में भाषा का नहीं, भावनाओं का महत्व है. भावुकतापूर्ण होकर भगवान के सामने अपनी इच्छा रखना है. फ्रेंच सर्जन, नोबेल विजेता डॉ. एलेक्सिस कैरेल ने अपनी पुस्तक “मैन द अननोन” में प्रार्थना से स्वस्थ हुए अनेक असाध्य रोगियों के बारे में लिखा है . उन्होंने यह कहा था कि “प्रार्थना करो, सच्चे मन से प्रार्थना करो, अपनी भूलों के लिए पश्चाताप और भविष्य में निर्मल जीवन जीने की प्रतिज्ञा के साथ, प्रार्थना करोगे तो वह अवश्य ही सुनी जाएगी.”
विक्रम ने बोलना जारी रखते हुए कहा- मित्र ! सुबह-सुबह उन सभी का मन ही मन ह्रदय से आभार मानना चाहिए, जिन्होंने किसी न किसी रूप में सहायता की हो, क्योंकि कई होलिस्टिक हीलर आभार चिकित्सा को अत्यधिक प्राथमिकता देते हैं, प्रोफ. राबर्ट इमेंस ने “थैंक्स, द न्यू साइंस ऑफ ग्रेटीट्युड” में लिखा है कि आभार से तन, मन और बुद्धि स्वस्थ रहते हैं, व्यक्ति की इम्युनिटी बढ़ती है तथा रोगों से मुक्ति भी जल्दी मिलने लगती है. साथ ही इसी समय मन ही मन उन सभी से क्षमा मांगना चाहिए, जिनका रोगी ने पहले दिल दुखाया हो. उन्हें क्षमा करें, जिन्होंने उसका दिल दुखाया हो. कुछ होलिस्टिक हीलर्स क्षमा चिकित्सा को अत्यधिक महत्ता देते हैं. डॉ. राबर्ट इनराइट ने इण्टरनेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ फोरगिवनेस के माध्यम से स्वास्थ्य और क्षमा के सम्बन्धों पर गहन अध्ययन किए हैं. भारत में जैन मतावलम्बी पर्युषण पर्व के समय सभी प्राणियों से क्षमायाचना और प्रायश्चित करते हैं और उन्हें क्षमा भी करते हैं. ईसाई समुदाय में प्रायश्चित या पश्चाताप तथा कन्फेशन को बहुत ही महत्वपूर्ण माना जाता है.
बेताल-मित्र ! तुमने आभार और क्षमा दोनों मन ही मन करने के लिए क्यों कहा?
विक्रम-मित्र ! अधिकांश लोग सामने जाकर आभार या क्षमा मांगने से कतराते हैं, जो कि सर्वश्रेष्ठ तरीका होता है, परन्तु मन ही मन किए जाने से भी लगभग पचास-साठ प्रतिशत लाभ होता है, इसे पत्र या अपनी डायरी में लिखकर भी किया जा सकता है.
बेताल- मित्र ! एक बात बताता हूँ, मैंने जिन-जिनका दिल दुखाया था या जिनका किसी प्रकार का नुक्सान किया था, उनके बारे में अक्सर मन में पश्चाताप भरे विचार आया करते थे. अब मुझे लग रहा है कि हमारा अवचेतन मस्तिष्क इन सब बातों को कभी भूलता नहीं है और भीतर ही भीतर हमें घुटन होती रहती है.
विक्रम-मित्र ! गीताजी में भगवान ने 18 वें अध्याय में कहा है कि हरेक व्यक्ति के ह्रदय में विराजमान परमात्मा व्यक्ति के कर्मों के अनुसार भ्रमण कराता रहता है. उसी अन्तरात्मा की घुटन ही व्यक्ति को तन, मन और बुद्धि से बीमार कर देती है. परन्तु इसे छोड़ों मित्र ! यदि हो सके तो सुबह की शुद्ध और चन्द्रमा के अमृत बिन्दुओं वाली हवा में गहरी सांस लेना चाहिए. यह समय स्वास्थ्यप्राप्ति, प्रार्थना, आराधना और ज्ञानप्राप्ति के लिए सर्वश्रेष्ठ होता है. जल्दी उठने के लाभों के विषय में कम से कम चालीस वैज्ञानिक अध्ययन हो चुके हैं. रात को ताम्बे के बर्तन में रखा पानी सुबह-सुबह बासी मुंह घूंट-घूंट पीना चाहिए, रातभर में मुंह के अन्दर जो थूक इधर-उधर चिपका होता है, उसमें बहुत लाभदायक एन्जाइम्स होते हैं और वह क्षारीय भी होता है. जर्मनी में हुए ताजा शोध में बताया गया है कि ताम्बे के सूक्ष्म कणों [नेनो साइज्ड] से कैंसर की कोशिकाएं मरने लगती हैं. अत्यधिक एसिडिक होने से आरो पानी का सेवन कदापि नहीं करना चाहिए. पानी हमेशा बैठकर और घूंट-घूंट ही पीना चाहिए. गरम पानी पीने से दर्द में कमी आती है, ऐसा अनेक लोगों का अनुभव है. माता-पिता को प्रणाम कर आशीर्वाद लेना चाहिए, कैथरीन पाण्डर का कहना है कि आशीर्वाद व्यक्ति के जीवन में सुख लाते हैं. दातुन के लिए कोई भी स्तरीय मंजन मध्यमा अंगुली से करें अथवा नीम या बबूल की दातुन का उपयोग करना अधिक स्वास्थ्यप्रद होता है. ब्रश को रोगकारी जीवाणुओं से बचाने के लिए टॉयलेट में ना रखें, ब्रश हर माह बदलना अच्छा रहता है. शौच करने के लिए कमोड का उपयोग मजबूरी में ही करना चाहिए. सम्भव हो सकें तो ठण्डे या गुनगुने पानी से सुबह-सुबह स्नान करना चाहिए, इससे इम्युनिटी बढ़ती है. नहाते समय सच्चे मन से माता गंगा का स्मरण करना चाहिए, क्योंकि वे पापों और रोगों का नाश करती हैं. भक्त रविदासजी ने कहा था मन चंगा तो कठौती में गंगा. अथर्ववेद में लिखा है कि जल में औषधीय शक्तियां होती हैं, जल के स्पर्श के समय सोचें कि यह जल मेरे रोगों को बहा कर बाहर कर रहा है.
बेताल-मित्र ! क्या इसीलिये भारत में नदियों में सुबह चार-पांच बजे नहाने का प्रचलन था?
विक्रम- मित्र ! यह सच है, हमारे ऋषि-मुनियों ने शोध करने के बाद ही परम्पराओं की शुरुआत की है.
बेताल- मित्र ! यदि कोई रोगी स्नान नहीं कर सकें तो.
विक्रम- मित्र ! एक कटोरी या गिलास में जल लें, गंगाजी का नाम लें और फिर उस पानी के कुछ छींटें, यह मन्त्र पढ़ते हुए अपने शरीर पर डाल लें, ॐ अपवित्र: पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा. यः स्मरेत्पुण्डरीकाक्षं स बाह्यान्तर: शुचिः.I मन्त्र याद नहीं रहें तो भगवान पुण्डरीकाक्ष यानी विष्णु का स्मरण कर लें तो भी भीतर और बाहर की शुद्धि हो जाती है. शरीर की शुद्धता से अधिक मन के पवित्र भाव महत्वपूर्ण है. सप्ताह में एक अथवा दो बार व्यक्ति अपने हाथों से यदि शरीर की मालिश करें तो प्रसन्नता देने वाले और दर्दनाशक रसायन निकलते है तथा तनावकारी रसायन कम हो जाता है. स्नान के बाद हो सकें तो पास के किसी मन्दिर में भगवान के दर्शन करें और परिक्रमा करते हुए सोचें कि भगवान रोग और पापों का नाश कर रहे हैं. मन्दिर में आरती के समय तालियां बजाएं, वास्तव में आरती के समय भगवान स्वयं अपने भक्तों के भीतर के आर्तनाद [दर्दभरी पुकार] को सुनते हैं. यदि मन्दिर जाना सम्भव न हो तो घर पर ही भगवान के चित्र के दर्शन करें. यदि हो सकें तो घर पर ही गीताजी के बारहवें अध्याय का हिन्दी अथवा अपनी भाषा वाला अर्थ पढ़ें. यदि संस्कृत में पढ़ सकें तो श्रेष्ठ रहेगा. अधिकतम पन्द्रह मिनट लगते हैं. एक पार्किन्सन के रोगी का समाचार प्रमुखता से छपा था कि गीता पाठ और हरे राम, हरे कृष्ण मन्त्र से वह रोगमुक्त हो गया है. इसके अलावा जब समय मिलें राम-राम का लगातार जाप करते रहें, मन्त्र दोहराने वाली मशीन दिनभर बजाने से सकारात्मक कम्पन का लाभ मिलता है. जैनधर्म में प्रचलित नवकार मन्त्र भी महामन्त्र है.
बेताल-मित्र ! गीताजी के बारहवें अध्याय पर तुम्हारा जोर क्यों है?
विक्रम-मित्र ! यह अध्याय सबसे छोटा तो है ही, इसमें भगवान को किस तरह के व्यक्ति प्रिय हैं, इसका वर्णन है, इसलिए रोगी को मानसिक शक्ति प्राप्त होती है. संस्कृत के शब्द प्राकृतिक रूप से ही हमारे मस्तिष्क में अनेकानेक सकारात्मक बदलाव करते हैं. श्रीदुर्गासप्तशती का बारहवां अध्याय देवी के भक्तों को और जैनियों को भक्तामर का पाठ करना चाहिए. मन्त्र विज्ञानी कहते हैं कि मन्त्र पर विश्वास नहीं हो तो भी मन्त्र काम करते हैं. राम नाम मन्त्रों का महाराजा है, बहुत ही सरल भी है, इस पर पूरा भरोसा करें. नाक, कान और गला विशेषज्ञ डॉ.अल्फ्रेड टोमेटिस के अनुसार ॐ के जाप से मस्तिष्क शान्त और तनावरहित होता है. न्यूरोसाइंटिस्ट डॉ.जेम्स हार्टजेल के अनुसार मन्त्रों के कम्पन से मस्तिष्क की कोशिकाएं रिलेक्स होती हैं, रोगग्रस्त कोशिकाओं से टाक्सिन बाहर निकल जाते हैं.
बेताल- मित्र ! मैं तो संस्कृत के मन्त्रों पर शोध करने वाले वैज्ञानिकों की खोजी प्रवृत्ति को नमन करता हूँ. आखिर मन्त्र प्रधान भारत के चिकित्सा वैज्ञानिकों के मस्तिष्क में ऐसी इच्छा क्यों नहीं जागी?
विक्रम- मित्र ! भारत के चिकित्सा विज्ञानी सोचते हैं कि भारत की सारी परम्पराएं पाखण्ड और अंधविश्वास है, उनमें विज्ञान है ही नहीं, इसे छोड़ों. जेफरसन यूनिवर्सिटी हॉस्पिटल के फिजिशियन डॉ. एंड्रयू न्यूबर्ग, एम.डी. ने अपनी पुस्तक “हाउ गॉड चेंजेज योर ब्रेन” में लिखा है कि भगवान में विश्वास करने वाले व्यक्तियों के मस्तिष्क में संरचनात्मक बदलाव होने लगता है और व्यक्ति स्वस्थ होने लगते हैं. मित्र ! भगवान को मानने वाले व्यक्ति को सदा यह विश्वास रहता है कि मैं अकेला नहीं हूँ, इसीलिये भारत में बच्चों को मन्दिरों में जाने के संस्कार डालें जाते हैं. मैं अपनी पढ़ाई के समय 14 साल अपने माता-पिता और परिजनों से सवा सौ किलोमीटर दूर बिलकुल अकेला रहा परन्तु भगवान पर भरोसे के कारण असफलताओं और अड़चनों के बाद भी मुझे कभी अकेलापन नहीं लगा.
बेताल- मित्र ! बात तो सच है, मेरे जमाने में फसल बर्बाद होने पर किसान कहते थे कि भगवान की मर्जी परन्तु वे हताश नहीं होते थे.
विक्रम-मित्र ! रक्त का प्रवाह बढाने और अधिक प्राणवायु के लिए हरेक व्यक्ति को कम से कम तीस से चालीस मिनट हल्का व्यायाम अवश्य करना ही चाहिए, क्योंकि यूज इट ऑर लूज इट नामक पुस्तकों में लिखा है कि यदि अंगों का नियमित उपयोग नहीं किया तो उनकी कार्यक्षमता और दक्षता कम हो जाएगी, यही डिस्युज एट्राफी का सिद्धांत भी है. इसलिए व्यायाम मर्जी या चॉइस का विषय नहीं है. व्यायाम से दर्दनाशक, प्रसन्नता देने वाले, रक्तवाहिनियों को चौड़ा करने वाले तथा फील गुड रसायन निकलते हैं. योगासन या शरीर संचालन या टहलना या बागवानी या बिल गेट्स की तरह बर्तन भी मांजे जा सकते हैं. यजुर्वेद में लिखा है, व्यायाम: औषधं.
बेताल-मित्र ! यदि कोई रोगी व्यायाम करने में समर्थ नहीं हो तो वह क्या करें?
विक्रम-मित्र ! तुम्हारा प्रश्न बहुत ही अच्छा है, भारत में कहा जाता है कि जैसा सोचोगे, वैसा हो जाओगे [यद् भावम् तद् भवति], इसलिए जो रोगी व्यायाम नहीं कर सकते हैं, उन्हें मन ही मन, गहरी कल्पना के साथ यह सोचना चाहिए कि वे दौड़ लगा रहे या व्यायाम कर रहे हैं. ओहियो यूनिवर्सिटी हेरिटेज कॉलेज ऑफ ओस्टियोपैथिक मेडिसिन के शोधकर्ताओं ने पाया है कि व्यायाम के बारे में सोचने मात्र से मांसपेशियां वास्तविकता में मजबूत हो सकती हैं. ये काल्पनिक व्यायाम मांसपेशियों को कमजोर होने से बचाते हैं. एक अन्य शोध के अनुसार वजन घटाने के इच्छुक व्यक्ति उन सारे व्यायामों को अपनी कल्पना में करें, जिनसे वजन घटता हो, तो लाभ होता है.
बेताल – मित्र ! यह तो अद्भुत है, विश्वास ही नहीं होता है.
विक्रम- मित्र ! पर यह सत्य है. हाँ, हरेक व्यक्ति को सुबह के समय सूर्य की धूप में कुछ देर अवश्य ही बैठना चाहिए, अपनी पुस्तक द न्यू साइंस ऑफ हीलिंग में जर्मनी के डॉ. लुइ कुने ने लिखा है कि सूर्य किरणों में रोगों को नष्ट करने तथा स्वास्थ्य एवं नया जीवन देने की प्राकृतिक शक्ति होती है. इसी तरह कम से कम बीस मिनट गहरी सांस या प्राणायाम का अभ्यास भी अत्यधिक जरूरी है, क्योंकि किसी भी रोग को हराने के लिए अधिक ऑक्सीजन की आवश्यकता होती है और यदि रोगी की उम्र 60 वर्ष से अधिक है तो फेफड़ों और श्वास नलिकाओं की क्षमता अनेक कारणों से कम हो जाती, इसलिए प्राणवायु की पूर्ति के लिए प्रतिदिन अधिक से अधिक समय तक गहरी सांस लेना चाहिए. यदि रोगी कपालभाति, मण्डुक आसन और पवन मुक्तासन कर सकता हो तो अपने चिकित्सा की अनुमति से अवश्य ही करना चाहिए.
बेताल-मित्र ! तुम्हारा कपालभाति, मण्डुक आसन और पवन मुक्तासन के लिए इतना जोर क्यों हैं?
विक्रम-मित्र ! ये क्रियाएं ऐसी हैं, जिनसे फेफड़ों में ताजा वायु का संचार अधिक मात्रा में हो जाता है. हाँ, एक बात तो मैं भूल ही गया था, सभी रोगियों को सही ढंग से सांस लेने का अभ्यास अवश्य ही करना चाहिए. आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के अनुसार सांस भीतर लेंगे तो पेट बाहर आना ही चाहिए और सांस बाहर निकालेंगे तो पेट भीतर होना चाहिए. द हीलिंग पॉवर ऑफ द ब्रेथ में गहरी सांस से अनेक रोगों को दूर करने की घटनाओं के बार में लिखा है, जेम्स गॉर्डोन पिछले पचास सालों से अपने रोगियों को डीप बेल्ली रेस्पिरेशन से ठीक कर रहे हैं. इसके अतिरिक्त प्रतिदिन दस से पन्द्रह मिनट तक ध्यान अवश्य करना चाहिए. इससे तन और मन रिलेक्स हो जाता है और तनावकारी रसायनों की मात्रा भी कम हो जाती है. और हाँ, ध्यान के बाद अपने ही हाथों से रोगग्रस्त अंगों को इस भावना से स्पर्श करें कि हाथों के माध्यम से ईश्वर की शक्ति उनके रोग को दूर कर रही है, हाथों में जो रोग दूर करने की शक्ति होती है, उसके विषय में स्टेफन को और एरिक बी रॉबिन्स, एम.डी. ने “योर हैंड्स केन हील यू” नामक पुस्तक लिखी है.
बेताल-मित्र ! क्या हम अपने हाथों से स्वयं को रोगमुक्त कर सकते हैं?
विक्रम- मित्र ! ऋग्वेद में हाथों की उपचारक शक्तियों के बारे में लिखा है, गुरु वशिष्ठजी ने भी इसका वर्णन एक श्लोक में किया है. हाथों की ऊर्जा पर नासा की बारबरा ब्रेनन ने “हैंड्स ऑफ लाइट” पुस्तक लिखी है. अनेक रोगों में प्रभावी होने से पश्चिमी देशों में अनेकों चिकित्सा और देखभाल केन्द्रों पर स्पर्श चिकित्सकों की सेवा ली जाती है. अब अल्पाहार और भोजन के नियम बताता हूँ, ध्यान से सुन.
बेताल- बताओ मित्र ! मैं सुनने के लिए तैयार हूँ.
विक्रम- मित्र ! सूर्योदय से कम से डेढ़ घंटे बाद ही कुछ खाएं, नाश्ते का आरम्भ फलों से करें, फल के साथ कोई भी अनाज या नट्स [बादाम, काजू, पिश्ता] नहीं लें, फलों का पाचन शीघ्र हो जाता है, यदि फल बाद में लेंगे तो पाचन संस्थान में क्रम बिगड़ने से पाचन ठीक से नहीं होता है. भूख लगे तो ही भोजन करें, घड़ी अथवा अपने नियम के हिसाब से नहीं. भूख नहीं है तो छप्पन भोगों का भी त्याग करना अच्छा है. बिना भूख भोजन करना रोगों को बुलाना है. भूमि पर आसन बिछाकर, बैठकर, अहोभाव से भोजन को भगवान का प्रसाद मानकर, शान्त तथा प्रसन्न मन से, भीगे पैर, चबा-चबा कर भोजन करें. कौर छोटे-छोटे हों, भूख से कम खाएं, उंगलियों से ही भोजन करें. व्यवस्थित पाचन के लिए लगभग 20 से 25 प्रतिशत पेट को खाली [आकाश तत्व के लिए] रखें. भोजन के आरम्भ में पित्त प्रबल होता है, इसलिए पहले थोड़ी-सी मिठाई लें. पौष्टिक, सात्विक, शाकाहारी, ताजा भोजन करें, हरी, स्थानीय और मौसमी सब्जियों [लोकल एण्ड सीजनल] का ही सेवन करें. सलाद अवश्य लें, फास्टफूड, डिब्बाबंद या होटलों का भोजन ना करें. क्षारीय भोजन [एल्कली फूड] का प्रतिशत 70 से 80% रखें, रिफाइंड तेल और माइक्रोवेव कदापि नहीं वापरें. शुद्ध घी, मूंगफली, सरसों या तिल का फिल्टर्ड तेल और देशी घी का उपयोग ही करें. भोजन के अन्त में कफ प्रबल होने से तीखे और कड़वे पदार्थों का सेवन करें. सप्ताह में कम से कम दो बार छिलके वाली मूंग की दाल या मूंग अवश्य खाएं. रात्रि भोजन कदापि ना करें. आयुर्वेद के अनुसार भोजन में छहों रस [मीठा, नमकीन, खट्टा, कड़वा, तीखा और कसैला] अवश्य होना चाहिए. सुबह के भोजन के बाद दस-पन्द्रह मिनट तक बाईं करवट लेट कर झपकी लेना चाहिए.
बेताल- मित्र ! भोजन के लिए इतने सारे नियमों से क्या लाभ हैं?
विक्रम-मित्र ! आयुर्वेद के अनुसार बीमारियों की जड़ पेट में होती है, कैंसर के लिए भी डाइट को प्रमुख कारण बताया गया है. कश्यप मुनि ने कहा है, आरोग्यं भोजनाधीनं. स्वस्थ कोशिकाओं के निर्माण तथा रोग से लड़ने की शक्ति के लिए भी अच्छा पाचन होना आवश्यक है. बाजारू तथा फास्टफूड आदि एसिडिक होते हैं, जो रोगों को बढाते है. एक ही तेल में बार-बार तली गई वस्तुएं निश्चित रूप से रोगी बनाती हैं. वैज्ञानिक अध्ययनों के अनुसार खड़े-खड़े भोजन तथा रात्रि भोजन से कैंसर की सम्भावनाएं बढ़ जाती हैं. यदि प्रतिदिन व्यक्ति दस से 14 घण्टों तक मुंह से कुछ ग्रहण नहीं [इण्टरमिटेंट फास्टिंग] करता है तो स्वस्थ रहता है. नोबेल विजेता डॉ. योशिनोरी ओहसुमी का कहना है कि उपवास के समय भूख लगने पर शरीर बीमार कोशिकाओं को खाने [ऑटोफेगी] लगता है.
बेताल- मित्र ! यह तो गजब की बात है, इसीलिये भारत में व्रत-उपवासों का चलन है और क्या करना चाहिए?
विक्रम- मित्र ! रोग और उसके कष्टों का बार-बार स्मरण ना करें, सकारात्मक सोच, स्वयं से ही सकारात्मक बातें करना, कर्तव्यपालन में ईमानदारी, कामचोरी और गलत काम कदापि नहीं. काम को बोझ नहीं आनन्द का विषय समझना. रिश्वत, मिलावट, ठगी, कम सामान देना, अनावश्यक रूप से झूठ बोलना, किसी का अपमान नहीं करना है क्योंकि व्यक्ति दूसरों को तो धोखा दे सकता है, परन्तु अपने भीतर बैठें भगवान या सीसीटीवी को नहीं दे सकता है. जाहि विधि राखें राम ताहि विधि रहिए को मानते हुए, जितना मिलें, उससे संतोष करना. कम शब्दों में कहूँ तो आचार्य चरक के जिन श्लोकों के बारे में तुमने बताया है, उनके अनुसार ही रोगी का आचरण होना ही चाहिए. जीवन में रिश्तों से सरोकार और मित्रता एवं सामाजिकता को प्राथमिकता दें. भजन या मधुर संगीत सुनना, दो-चार घण्टों तक मौन रहना, दो-तीन घण्टों के लिए मोबाइल नहीं वापरना. सप्ताह में एक बार एकाध घंटे के लिए गौशाला में रहना या गायों को स्पर्श करना, महीने में एक बार कम से कम दो-चार घण्टों के लिए घने पेड़ों से घिरी जगह पर रहने का प्रयास करना, जापान में इसे शिनरिन योकू और अमेरिका में फारेस्ट बाथ तथा अथर्ववेद में वायु चिकित्सा नाम दिया गया है. रोगियों को वृक्षों से निकली स्वास्थ्यवर्द्धक गंध नया जीवन और प्रसन्नता देती है. अपने व्यवहार में करुणाभाव को विकसित करना, पक्षियों को दाना, पौधों को पानी, निर्धन बच्चों के स्कूल की फीस भरना या पुस्तकों का खर्च उठाना, परोपकार करना या स्वयं को दूसरों का भला करते हुए देखने की कल्पना करना भी स्वास्थ्यकारी है. डॉ. स्टेफन पोस्ट ने अपने शोध में पाया कि जो लोग परोपकार करते हैं, वे अधिक युवा रहते हैं, लम्बी आयु पाते हैं, संतोषी होते हैं, उन्हें अवसाद कम होता है और फीलगुड अनुभव करते हैं. उन्होंने अपने अध्ययन में पाया कि उदारता की भावना से देने के बारे में सोचना भी स्वास्थ्य और कल्याण से जुड़ा हुआ है.
बेताल-मित्र ! वाह, क्या बात है, तभी तुलसीदासजी ने श्रीरामचरितमानस में कहा है “मानस पुन्य होहिं नहिं पापा” कलियुग में मानसिक पुण्य तो फलदायी होते हैं, परंतु मानसिक पापों का फल नहीं भोगना पड़ता है.
विक्रम- मित्र ! अब मैं अत्यधिक महत्वपूर्ण सूत्र बताने वाला हूँ, इनका सच्चे दिल और पूरे विश्वास से पालन करने वाले व्यक्ति के रोग दूर होते ही हैं.
बेताल-मित्र ! ये तो कुछ ज्यादा ही दावा कर दिया है, तुमने.
विक्रम- मित्र ! हमारे देश में दध्यंग अथर्वण नामक ऋषि हुए हैं, जिनके नाम से अथर्ववेद की रचना हुई, यह ग्रन्थ दैवी चिकित्सा की महाविद्या का प्रथम वैज्ञानिक महाकोश है. इसमें आश्वासन चिकित्सा के बारे में बताया है, जिसके अनुसार यदि किसी रोगी को कोई उपचारक पूरा भरोसा दिलाकर आश्वस्त करें कि मेरी दवाओं से तुम्हारा रोग दूर हो जाएगा तो असाध्य रोग भी ठीक होने लगता है. एक उदाहरण से आश्वासन चिकित्सा की सत्यता समझ में आ सकेगी. अमेरिका के यू. डब्ल्यू. मेडिकल स्कूल के न्यूरोसाइंटिस्ट प्रोफ. डॉ. पॉल बैच रीटा के पिता श्री पेड्रो को 1958 में सेरिब्रल इन्फार्क्शन [स्ट्रोक] के कारण एक साइड का पक्षाघात [पैरालिसिस] हो गया और उनकी आवाज चली गई, अनेक वरिष्ठ चिकित्सकों ने कह दिया कि अब वे स्वस्थ नहीं हो सकते हैं. पेड्रो को यह बात नहीं मालूम थी कि वे अब ठीक नहीं हो पाएंगे. उनका छोटा बेटा सायकोलाजिस्ट था, वह अपने पिता को झूठ-मूठ आश्वासन देता रहता था कि आप स्वस्थ हो जाएंगे. वे मेडिकल साइंस को झुठलाते हुए पूर्णरूप से स्वस्थ हो गए, इसे बाद में न्यूरोप्लास्टिसिटी नाम दिया गया. डॉ. नॉर्मन डॉज ने अपनी पुस्तकों में, द ब्रेन देट चेंजेज इटसेल्फ और द ब्रेन्स वे ऑफ हीलिंग में लिखा है कि एक महिला आधे दिमाग के साथ पैदा हुई थी, वह आश्वासन और स्वयं के प्रयासों से पूरी तरह ठीक हो गई. सेरेब्रल पाल्सी वाले बच्चें अधिक सुन्दर तरीके से चलना सीख रहे हैं.
बेताल- मित्र ! क्या भारत के चिकित्सा वैज्ञानिकों को इतना ज्ञान था?
विक्रम-मित्र ! भारत ज्ञान का सागर है. हमारे देश में संकल्प की बात की जाती है और कहा गया है, यद् भावम् तद् भवति [जैसा भाव होगा, वैसा हो जाएगा], हो सकें तो रोगी अपना एक ऐसा फोटो बनवाएं, जिसमें वह पूरीतरह स्वस्थ और प्रसन्नचित्त दिखाई दे रहे हों, उसे अपने सोने के कमरे में लगाएं, मोबाइल की स्क्रीन बना लें. इसी तरह यदि कोई व्यक्ति पूरे विश्वास के साथ, पूरीतरह भगवान भरोसे, हर दिन, हर समय यह कल्पना करें कि उसके रोग को परमात्मा नष्ट कर रहे हैं और वह उसे कल्पना में ऐसे देखता रहे कि वास्तव में वैसा हो रहा है तो रोग का नाश सम्भव है. कादम्बिनी पत्रिका में दशकों पूर्व मस्तिष्क के कैंसर से ग्रस्त एक बालक की कथा छपी थी, उसके मस्तिष्क में कैंसरस ट्यूमर का आकार बढ़ता जा रहा था, उस बालक ने वीडियो गेम खेलते हुए क्रोध में उस ट्यूमर को ड्रेगन मानते हुए, हर दिन उस पर घण्टों गोलीबारी करना आरम्भ किया. यह सहज प्रतिक्रिया थी, कोई लक्ष्य नहीं था. कुछ दिनों में अचानक उसके लक्षण आश्चर्यजनक रूप से कम हुए और कुछ महीनों में ट्यूमर पूरीतरह गायब हो गया. उपचार करने वाले डॉक्टर के लिए यह आश्चर्य का विषय था. उन्हीं के अस्पताल में एक नर्स को भी कैंसर का ट्यूमर था, परन्तु उसे बेहोशी की सभी दवाओं से एलर्जी थी, इसलिए डॉक्टर ने उसे सलाह दी कि वह ऐसी कल्पना करें कि सफेद घोड़ों पर सवार श्वेत रक्त कोशिकाएं [वाइट ब्लड सेल्स] हाथ में तलवार लेकर उसके ट्यूमर को काट रही हैं. कुछ माह में वह नर्स भी कैसर के ट्यूमर से मुक्त हो चुकी थी. फ्रांस के मनोचिकित्सक इमाइल कुए अपने रोगियों को एक ही वाक्य प्रतिदिन रात सोते समय दोहराने की सलाह देते थे, कि मैं बीमार नहीं हूँ, मैं पूरी तरह स्वस्थ होता जा रहा हूँ. मैं कल की अपेक्षा आज अधिक स्वस्थ हूँ, स्वस्थ होता जा रहा हूँ. उन्होंने इस मन्त्र से हजारों रोगियों को स्वस्थ किया था. मैं एक चिकित्सक को जानता हूँ, जिसने एक गंजे व्यक्ति के सर पर आश्वासन चिकित्सा से बाल उगाने का काम किया है. Treatment of Balakdas Ji using Auto Suggestion इस शीर्षक से यू ट्यूब पर उस व्यक्ति का वीडियो देखा जा सकता है.
बेताल-मित्र ! अब सोने के नियम ही बता डालो, रोगियों के उपचार की सटीक रणनीति बन जाने से मुझे भी नीन्द आने लगी है.
विक्रम- मित्र बेताल ! एक बात और, रोगी को अकारण ही खूब हंसना चाहिए. एक अत्यन्त गम्भीर रोग से पीड़ित तथा अस्पताल में अपनी मौत का इन्तजार कर रहे प्रसिद्ध राजनीतिक पत्रकार नार्मन कजिन का हंसने से रोग दूर हो गया. रोग दूर होने पर उसने एनाटामी ऑफ एन इलनेस नामक पुस्तक लिख डाली. वैज्ञानिकों का कहना है कि यदि आप अकारण भी ठहाके लगाते हैं तो रोगों दूर होने लगते हैं. वैसे ठहाकों से फेफड़ें भी खुलते हैं. मित्र ! रोगी व्यक्ति को रात दस बजे भगवान सेरोग मुक्ति की प्रार्थना करते हुए सो जाना चाहिए, कमरे में अन्धेरा रहें. मोबाइल को दूर रखें. मन में स्वस्थ होने की शक्तिशाली भावना और कल्पना होना चाहिए.
बेताल- मित्र ! मैं आज बहुत प्रसन्न हूँ, मैंने जो आयुर्वेद को थोड़ा-बहुत पढ़ा था, वह आज काम आ गया और तुम्हारे एक बहुत ही पवित्र और लोकहित के अभियान में मुझे भी सम्मिलित होने का सौभाग्य प्राप्त हो गया.
विक्रम- मित्र ! मैं तुम्हारा दिल से आभारी हूँ. आज मेरी वर्षों की मंशा और साधना पूरी हो गई.
बेताल-मित्र ! इसमें एक बात अवश्य लिख देना कि रिश्वत या भ्रष्टाचार या अनीति से कमाए गए धन का उपभोग जितने भी आश्रित लोग करते हैं, उन्हें भी रोग, शोक, दुःख भोगना पड़ते हैं. इतिहास साक्षी है, दुष्ट दुर्योधन द्वारा दिए गए अन्न, पद, आवास और सुख-सुविधाओं का भोग करने वाले महात्मा भीष्म, महात्मा कर्ण, द्रोणाचार्य आदि को भी फल भोगने पड़े थे.
इतना कहकर बेताल ने परोपकार के अपार आनन्द के साथ विक्रम के कक्ष से प्रस्थान कर दिया. विक्रम गुनगुना रहा था, सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामया, सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग् भवेत्.I

आभार: परमात्मा, भारतभूमि, स्वामी विवेकानन्द, आयुर्वेद के मनीषियों और विदेशी वैज्ञानिकों का ह्रदय से आभारी हूँ. माता, पिता और भाइयों का संस्कार, संवेदनशीलता और सामाजिक समरसता के लिए और संघ परिवार से जुड़ी मेरी अर्द्धांगिनी का प्रेरणा, सहयोग और त्याग के लिए आभारी हूँ, वह पहली पाठक और सम्पादक का दायित्व भी निभाती है. मेरे व्यक्तित्व को गढ़ने, निखारने और लोकहित में मेरी भूमिका सुनिश्चित करने का पराक्रम करने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और संघ परिवार के श्रद्धेय स्व. श्री अनंत शंकर नातू, उपाख्य बाबा साहब, मान. श्री सुरेशजी सोनी, मान. श्री अतुलजी कोठारी [शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास, नईदिल्ली] का मैं विशेष रूप से आभारी हूँ. भारतीय ज्ञान परम्परा की प्रतिष्ठा के लिए मार्गदर्शन, प्रेरणा और आशीर्वाद देने वाले परमपूज्य आचार्यश्री विद्यासागरजी को आभार नमन करता हूँ. स्व. श्री प्रभु जोशी, स्व. श्री श्रीराम ताम्रकर, स्व. प्रोफ. श्री के.पी. जोशी, स्व. पद्मश्री श्री टी.जी. कुट्टीमेनन, श्री कृष्णकुमार अस्थाना, डॉ. प्रोफ. सुखवंत बोस और श्री सुरेश ताम्रकर का आभारी हूँ, जिन्होंने नि:स्वार्थ सेवा का पाठ अपने कृतित्वों से पढ़ाया. अपने अनेक गुरुजनों, मित्रों, परिजनों, विद्यार्थियों, रोगियों, शुभचिंतकों तथा दृश्य और अदृश्य सहायकों का आभारी हूँ. डॉ. गणेशराम पौराणिक, वैद्य श्री सोमेन्द्र मिश्रा और वैद्य विनोद वैरागी का मार्गदर्शन के लिए आभारी हूँ. परमपूज्य स्व. श्री माधवराव सदाशिवराव गोलवलकरजी उपाख्य गुरुजी को आभार नमन करता हूँ, जिनका परोक्ष आशीर्वाद मुझे मिलता रहा है. अखण्ड ज्योति [गायत्री परिवार] और लर्न गीता [गीता परिवार] का भी आभारी हूँ. यह कृति लगभग 30-35 वर्षों का निचोड़ है और कुछ दिनों पूर्व तैयार 159 स्लाइड्स की प्रस्तुति का सार है. भगवान की कृपा रही तो इस कथा के आधार पर लगभग सौ-सवा सौ पृष्ठों की पुस्तक के रूप में प्रस्तुत करूंगा. यह यशस्वी प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्रजी मोदी के आत्मनिर्भर भारत के अभियान के सम्मान में भारतीय ज्ञान परम्परा आधारित “आत्मनिर्भर निरोगिता” का विनम्र प्रयास है.
— डॉ. मनोहर भण्डारी