विकास
बाप दादों की जमीन बेच
गाँव छोड़ शहर बस गया हूँ
खुले मकान से
बंद कमरों में सिमट गया हूँ
निजता न ख़त्म हो जाये
इसलिए खिड़कियों में
मोटे पर्दे लटका लिए हैं
धूप से मेहरूम हूँ
ठंडी हवा के झोकों के लिए
वातानकूलित यन्त्र लगवा लिए हैं
मेरे पड़ोस में कौन रहता है
वह मुझे नहीं मैं उसे नहीं जानता
हम दोनों एक दूसरे से अजनबी हैं
बाप दादों की जमीन बेच
क्या पाया हमनें
विकास के नाम पर
अपनी पहचान को खो दिए हैं.
— ब्रजेश गुप्ता