गीतिका
टूट गई हैं सभी दीवारें, सत्ता के गलियारों में,
भेष बदलकर बैठ गए हैं,कातिल पहरेदारों में।
भेड़ों की चौपाल सजी है,खरगोशों का मेला है,
लक्ष्य भेड़िये साध रहे हैं,मिलकर रंगे सियारों में।
गिद्धों की टोली व्रत करने,बैठ गई रणभूमि में,
कैसे मोल चुका पाएँगी,लाशें अब उपकारों में?
रंग निराले धरकर गिरगिट,सैर करें फुलवारी की,
शलभ समझ पाएँ ना असली,शातिर इन किरदारों में।
टटकी बाँधे पंथ बुहारे,शबरी युग से तरस रही,
‘अच्छे दिन’ कब ले आएँगे,रघुवर जन-दरबारों में?
सजा न पाओगे शिवशंकर,अब अपना तन व्यालों से,
ज़हर भरा है बड़ा विषैला,कुरसी की फुफकारों में।
कौओं की महफिल में ग़ज़लें,इंकलाब की मत गाना,
नाम तुम्हारा आ जाएगा,देशद्रोही-गद्दारों में।
हिम्मतकर सब बैठ गए हैं,कागज की नौकाओं पर,
वक़्त बताएगा दम कितना,नाविक की पतवारों में?
तिनकों की बस्ती में माचिस की तीली का काम नहीं
यहाँ दहक उठते हैं छप्पर, सावन की बौछारों में।
‘शरद’ फूँककर कदम बढ़ना,बेईमानों की दुनिया है,
नाम तुम्हारा छप जाएगा, कल सुबह अखबारों में।
— शरद सुनेरी