लघुकथा – उम्मीद
रश्मि ने हर रविवार को अपने शहर के स्लम बस्ती में जाकर गरीब बच्चों को खीर पूड़ी आदि खिलाने का मन बनाया था। आज भी वह बच्चों को खीर पूड़ी बाँट रही थी कि अचानक एक बच्चे के प्रश्न से वह चकित रह गई। “दीदी! आप कितनी दयालु हैं, हम गरीब के बच्चों को इतने स्वादिष्ट और कीमती भोजन देती हैं। मैं भी बड़ा होकर आपके जैसा गरीबों की सेवा करना चाहता हूँ परंतु…।”
“परंतु क्या?”
“आप पढ़ी-लिखी हैं,कोई जॉब करती हैं, तभी तो मदद कर पाती हैं और हमारे नसीब में पढ़ाई लिखी नहीं है, लिखी होती तो कोई स्कूल हमारे मोहल्ले में भी होता!”
“अरे नहीं,तुम पढ़ना चाहते हो तो स्कूल तुम्हारे मोहल्ले में भी चलकर आएगा।”
“हम सभी बच्चे स्कूल जायेंगे, साफ कपड़े पहनेंगे और दीदी की तरह अच्छा काम करेंगे। हमारे मोहल्ले में भी एक स्कूल खुलवा देगी दीदी।”
रश्मि ने देखा,बच्चों की आँखोंं में उम्मीद की किरणें चमक रही हैं।
— निर्मल कुमार दे