अक्स
ऐसी रंगत कभी आंखों में देखी नही
कोई बतला दे रंगों का ख्वाब देखा ही नही
फिर बातें किस हिसाब की किसको कहे
जो साथ थे आज वो साथ ही नही
मुलाकातों का दौर था जवानी थी उस दौर
अब सड़कें, मकान की खिड़कियाँ सूनी सी
गुलाब खिल रहे मगर खुशबुओं में
तुम नज़र न आईं कभी
एक अक्स बसा है जीवन भर आंखों में
मै अक्सर प्रेम में उसे ही पूजता आ रहा हूँ
— संजय वर्मा “दृष्टि”