कविता

मैं बागबाँ हूंँ

मैं बागबाँ हूंँ,

फूल खिलाने जा रहा।

इस उपवन से उपवन में,

मैं सेवा करने जा रहा।

जो फूल खिले इस उपवन में,

उसकी महक छोड़ मैं जा रहा।

चप्पा-चप्पा इतिहास बनाकर,

नए माली के हाथों सौंप रहा।

ममता है बहुत इस बाग से,

पर आए थे तो जाना होगा ही।

न रुका न कोई रुक पायेगा,

जो मिला बिछड़ ही जायेगा।

रह जायेगा कीर्ति अपना,

जो बाग में पानी डाला था।

याद करेगा हर पौधा,

जिन्हें प्यार से हमने सींचा था।

जा रहा सलामती चाहत है,

नए बागबांँ से यही गुजारिश है।

ये फूल हमेशा खिला रहे,

गुलशन में महक बना रहे।

कोई गुलाब है कोई चंपा है,

हर बुरी नजर से बचा रहे।

नए माली को बाग मुबारक हो,

है कामना हमेशा खुशहाली हो।

हम न रहेंगे कल तो क्या हुआ,

है चाहत माहौल बसंती हो।

जा रहा बाग को छोड़ सही,

है अभिलाषा उपवन फूलों से सजा रहे।

हे नए माली अब जाता हूंँ,

इस उपवन को तुमको सौंपता हूंँ।

जब मेरी यादें आएंगी,

मैं हवा के संग आ जाऊंँगा।

हर फूल को स्पर्स करके मैं,

फिर वापस चला जाऊंँगा ।

— अमरेन्द्र

अमरेन्द्र कुमार

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