समीक्षा, कर्त्तव्य-बोध (कहानी संग्रह)
समीक्ष्य कृति: कर्त्तव्य-बोध ( कहानी संग्रह)
लेखक: चितरंजन भारती
प्रकाशक: सृजनलोक प्रकाशन, नई दिल्ली-62
प्रकाशन वर्ष: 2023
मूल्य: ₹200/ पेपरबैक
कर्त्तव्य-बोध: संवेदनाओं को जाग्रत करती कहानियाँ
सुप्रतिष्ठित साहित्यकार चितरंजन भारती जी के कई कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। यह आपका सातवाँ कहानी संग्रह है। इससे पूर्व आपके किस मोड़ तक, अब और नहीं, पूर्वोत्तर का दर्द, प्रिसाइडिंग ऑफिसर की डायरी, पूर्वोत्तर राजधानी एक्सप्रेस, गुड़ का ढेला कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। ‘कर्त्तव्य-बोध’ कहानी संग्रह में कुल पंद्रह- वास्तुदोष कहाँ है, सुनहरा भविष्य, होम आइसोलेशन, प्यार झुकता नहीं, फर्ज, बड़े घर की बहू, संकट की घड़ी, सख्त निर्णय, अब हम खुश हैं, एक और बेटे की माँ, कर्त्तव्य-बोध, खतरा यहाँ भी हैं, जोखिम में जान, तूफान की वह रात और चीनी कम, कहानियाँ हैं। श्री चितरंजन भारती जी के अनुसार इस संग्रह की अधिकांश कहानियाँ कोरोना से संबंधित परिस्थितियों और घनीभूत संवेदनाओं पर तैयार की गई हैं।
इस संग्रह की पहली कहानी ‘वास्तु दोष कहाँ है’ में हमारे मन के भ्रम या वहम को दर्शाया गया है। कहानी के मुख्य पात्र भानु प्रकाश की तरह समाज में अनेक ऐसे लोग होते हैं जो वास्तुदोष जैसी बातों पर जरूरत से अधिक विश्वास करते हैं और घर में तोड़-फोड़ करवाना या घर बदलना उनके लिए आम बात होती है। व्यक्ति के साथ घटी कोई घटना मात्र संयोग भी तो हो सकती है। हम इस बात को भूल जाते हैं। गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है ‘ तुलसी जस भवितव्यता तैसी मिलै सहाय।’ यदि आप ईश्वर पर विश्वास करते हैं तो इस बात को ध्यान में रखना चाहिए कि होगा वही, जो ईश्वर चाहता है। इसलिए हमें अपने मन में वहम को स्थान न देकर अंधविश्वास से दूर रहना चाहिए।
दूसरी कहानी ‘सुनहरा भविष्य ‘ विधुर विवाह को लेकर रची गई है। इस कहानी में लेखक ने इस बात को रेखांकित किया है कि चाहे पुरुष हो या महिला, जीवन साथी का साथ छूट जाने पर अकेलापन सालता ही है। इतना ही नहीं, समाज का नज़रिया बदल जाता है, ऊपर से पारिवारिक जिम्मेदारियों का बोझ भी एक समस्या के रूप में खड़ा हो जाता है। ऐसी स्थिति में किसी पुरुष या महिला के लिए पुनर्विवाह का निर्णय आसान नहीं होता। हाँ, यदि सही जीवन साथी मिल जाता है तो जिंदगी की मुश्किलें कम अवश्य हो जाती हैं।
‘होम आइसोलेशन’ एक ऐसी कहानी है जो कोरोनाकाल के समय शहर से अपने गांव आए युवक की मनोदशा का चित्रण करती है। गांव पहुँचने पर किस तरह उसके पिता जी घर के एक कमरे में अलग रखने का निर्णय लेकर उसको अचंभित कर देते हैं। उसे ऐसा लगता है कि उसके पिता जी उसके साथ नाइंसाफी कर रहे हैं जबकि हर जगह, जहाँ भी रास्ते में उसका टेस्ट हुआ उसे तो पॉजिटिव पाया ही नहीं गया। फिर जब गाँव में कोरोना की जांच करने आई टीम के द्वारा उसकी जांच की जाती है तो वह टेस्ट में कोरोना पॉजिटिव पाया जाता है। तब उसे अहसास होता है कि पिता जी का निर्णय पूरी तरह सही था। प्रायः यह देखने में आता है कि युवा पीढ़ी को पुरानी पीढ़ी के फैसले रास नहीं आते क्योंकि उनकी सोच पुरानी पीढ़ी से अलग होती है। उन्हें ऐसा लगता है कि उनके पास डिग्रियाँ हैं तो उनके पास ज्ञान भी अधिक है। पर हर समय ऐसा नहीं होता, जीवन में अनुभव की अलग अहमियत होती है और पुरानी पीढ़ी के लोगों के पास निश्चित रूप से तजुर्बा होता है। नई पीढ़ी को उनके उस तजुर्बे का सम्मान करना चाहिए और उनके द्वारा दिए गए सुझावों पर अमल करना चाहिए।
‘फर्ज ‘ भी एक ऐसी कहानी है जो कोरोनाकाल के भयावह दृश्य से पर्दा उठाती है। जब हम इस कहानी को पढ़ते हैं तो पुराने दिनों का दृश्य आँखों के आगे तैरने लगता है। सबसे बड़ी बात इस बीमारी ने तो इंसानियत को भी तार-तार कर दिया था। कोरोना से ग्रस्त व्यक्ति के खुद के घर वाले जाने से भी बचते थे। उन्हें लगता था कि कहीं ऐसा न हो कि कहीं वे भी इस संक्रामक बीमारी की चपेट में आ जाएँ। पर उस समय भी कुछ लोग ऐसे थे जिन्होंने न केवल अपनों की वरन दूसरों की जी-जान से सेवा की। इस कहानी में भी एक भाई को जब यह पता चलता है कि उसकी बहन और जीजा कोरोना की चपेट हैं तो वह बिना कुछ सोचे-समझे उनकी मदद करने के लिए निकल पड़ता है जबकि यही बहन और जीजा ,जब वह स्वयं कोरोना की चपेट में आया था,तब उसको देखने आना तो दूर ,फोन पर भी उसका हाल-चाल नहीं पूछते थे।
करोना ने दुनिया को वह दिन दिखाए जिसकी कल्पना तक लोगों ने नहीं की थी। कोरोनाकाल में लाॅकडाउन लगने पर मानवता ने दम तोड़ दिया। अपने-अपने न रहे। माँ,बहन, बाप ,बेटे सारे रिश्ते दम तोड़ते दिखाई दे रहे थे। लोगों के कारोबार चौपट गए, नौकरियाँ चली गईं। ‘सख्त निर्णय’ एक ऐसी ही कहानी है जिसमें ‘सुधा’ पति के गुजरने के बाद ससुर के कोरोना पीड़ित होने पर कोई उपाय न देख ,मेहनत से पाॅश इलाके में बनाए गए अपने घर को बेचने का निर्णय लेती है। उसके बेटे उससे मुँह मोड़ लेते हैं।
‘अब हम खुश हैं’ राकेश रश्मि से जुड़ी ऐसी कहानी है जिसमें कोरोनाकाल के विभिन्न संकटों के साथ-साथ जातीय व्यवस्था की मार झेलते प्रेमी जोड़े के लिए एक आदर्श समाधान प्रस्तुत किया गया है। पिता जी को जब कोरोना हुआ तो राकेश का बड़ा भाई संक्रमण के डर से अपने ससुराल चला गया। घर को सँभालने और पिता जी की तीमारदारी की जिम्मेदारी राकेश ने बखूबी निभाई। उस समय बैंक से पैसे निकालना एक मुसीबत हुआ करती थी। बैंक के बाहर बने गोल घेरों में लोगों को खड़े होकर घंटों इंतजार करना पड़ता था तब जाकर पैसे निकल पाते थे। उसी समय राकेश की मुलाकात रश्मि से होती है। रश्मि एक दलित युवती थी। दोनों में धीरे-धीरे प्रेम पनप जाता हैं। राकेश के माता-पिता पुराने खयाल के थे इसलिए शादी में अड़चन आ रही थी। अंततः सब कुछ ठीक-ठाक हो जाता है और फिर राकेश और रश्मि की शादी हो जाती है। रश्मि यह निर्णय लेती है कि वह इसी शहर में अलग मकान लेकर रहेगी जिससे राकेश के माता-पिता को रोज-रोज समाज के ताने न सुनने पड़ें।
‘कर्त्तव्य-बोध’ वह कहानी है जिसके आधार पर इस कृति का नाम कर्त्तव्य-बोध रखा गया है। यह कहानी भी कोरोनाकाल से जुड़ी हुई है। कोरोनाकाल में डाॅक्टरों की जिम्मेदारी बहुत ज्यादा बढ़ गई थी। उन्हें अपनी जान की परवाह नहीं थी। जब अपने पास नहीं फटकते थे उस समय डाॅक्टर ही थे जो भयंकर गर्मी में पीपीई किट पहनकर लोगों इलाज करते थे। डाॅ सरिता जो एम्स में कार्यरत हैं ,वह अपने बेटे को जबान देकर भी उसके जन्म दिन के अवसर पर समय से घर नहीं पहुँच पाती है। क्योंकि जैसे वह अस्पताल से निकलने को होती है कि नर्स आकर बताती है मैडम ,डाॅ श्वेता ड्यूटी पर नहीं आई हैं और एक मरीज है जिसकी डिलीवरी करानी है। डाॅ सरिता को कर्त्तव्य-बोध है इसलिए वे उसकी डिलीवरी कराके ही घर जाती हैं।
कोरोनाकाल में मेडिकल और पैरामेडिकल से जुड़े लोगों की समस्याएँ ही नहीं बढ़ी थीं। पुलिसकर्मियों की जिम्मेदारी भी बढ़ गई थी। वैसे तो लोग अपने आपको बहुत अधिक समझदार मानते हैं लेकिन जब उस समझदारी का परिचय देना होता है तो उनकी अक्ल घास चरने चली जाती है। कोरोनाकाल के समय भी ऐसा ही दिखाई दे रहा था। कोरोना से बचाव के लिए जो तरीके उस समय विशेषज्ञ बता रहे थे उनमें मास्क का प्रयोग और एक दूसरे से दूरी प्रमुख थे लेकिन लोग इन बातों का पालन नहीं कर रहे थे। ऐसे में लोगों की जान बचाने के लिए सरकार को पुलिस-प्रशासन को लगाना पड़ता था। पुलिस कर्मियों को अपनी ड्यूटी भी करनी थी और अपने को कोरोना से सुरक्षित रखना था। रचना यादव इस कहानी की एक ऐसी ही इंस्पेक्टर हैं जिनके पति घर में ,कोरोना पाॅजिटिव होने के कारण आइसोलेशन में हैं और घर में छोटा बेटा अकेला है फिर भी उन्हें अपनी ड्यूटी को अंजाम देना है।
इस संग्रह की अंतिम कहानी है ‘चीनी कम’। इस कहानी में चितरंजन भारती जी ने एक ऐसे पक्ष को उभारा है जो हमें मानवता के पतन की पराकाष्ठा को दिखाता है। ब्रजेश और विकेश दोनों दोस्त हैं। कोरोनाकाल में विकेश की नौकरी चली जाती है। वह इंटरव्यू के सिलसिले में आता है तो अपने दोस्त ब्रजेश के कहने पर उसके घर मिलने आ जाता है। ब्रजेश की पत्नी जो कि एक इंश्योरेंस एजेंट हैं ,जब वे उससे बीमा कंपनी में कुछ पैसे निवेश की बात करती हैं तो विकेश उनसे बताता है कि कोरोनाकाल में उसकी नौकरी चली गई है। अब वह एयरलाइंस में पायलट नहीं है। जिस एयरलाइंस कंपनी में वह काम करता था ,वह दिवालिया हो गई है। इसलिए वह बीमा करवाने की स्थिति में नहीं है। इतना सुनते ही ब्रजेश की पत्नी सरला का व्यवहार बदल जाता है। यह दुनिया की एक ऐसी सच्चाई है जिससे विपत्ति आने पर लोगों को दो-चार होना पड़ता है। बहुत कम संगी-साथी या परिवार के लोग होते हैं जो मुसीबत के वक्त काम आते हैं।इस कहानी को पढ़कर रहीमदास जी के दोहे की पंक्ति ‘बिपति कसौटी जे कसे तेई साँचे मीत।’ बरबस ही स्मरण हो आती है।
कुल मिलाकर इस कहानी संग्रह की समस्त कहानियाँ न केवल कोरोनाकाल की त्रासद स्थितियों का एक दस्तावेज है अपितु मानवता के उस पक्ष को भी हमारे सामने प्रस्तुत करती हैं जिनको पढ़कर हमारे अंदर यह भावना दृढ़ीभूत होती है कि भले ही भौतिकता ने लोगों का जीवन जीने का तरीका बदल दिया हो, लोग आत्मकेंद्रित हो गए हों परंतु अभी भी लोगों के अंदर इंसानियत जीवित है और वे लोगों के दुख-दर्द के समय सब कुछ भूलकर मदद के लिए आगे आते हैं। समाज के सभी लोग तो कभी भी अच्छे नहीं रहे हैं तो वह स्थिति आज भी है। कुछ लोग ऐसे होते हैं जो आपदा में भी अवसर की तलाश में होते हैं तो कोरोनाकाल में भी ऐसी अनेक घटनाएँ विभिन्न संचार माध्यमों से हम पहुँच रही थीं। निश्चित रूप से यह कहा जा सकता है कि सरल और बोधगम्य भाषा में लिखित ये कहानियाँ मानव संवेदनाओं को जाग्रत करने में सक्षम हैं। इस महत्त्वपूर्ण कृति के प्रणयन के लिए चितरंजन भारती जी को अनेकानेक बधाई। आप इसी तरह साहित्य की श्रीवृद्धि करते रहें।
समीक्षक,
डाॅ बिपिन पाण्डेय
रुड़की ( हरिद्वार)