कविता

बस यूँ ही

बस यूँ ही वक्त गुज़ार लेता हूँ मैं,
तन्हाईयों में वक्त गुज़ार लेता हूँ मैं।
जो बातें कह न सका अपनों के सामने,
मौन गुनगुना कर वक्त गुज़ार लेता हूँ मैं।
मित्र परिजन ख़ुश रहें, बस यही चाहत मेरी,
उनकी ख़ुशी में ख़ुश, वक्त गुज़ार लेता हूँ मैं।
रहता सदा प्रयास अपना, शान्ति जीवन में रहे,
दुःख सुख में समभाव रह, वक्त गुज़ार लेता हूँ मैं।

— डॉ अ कीर्ति वर्द्धन