कविता – सत्ता के गलियारों में
असली कम और नकली ज्यादा है इनके किरदारों में |
न मानो तो देख लो तुम भी सत्ता के बाजारों में ||
बेबस की लाचारी पर भी ये सियासत करते हैं |
लाचारों की पीड़ा भी है वोटों के हथियारों में ||
सच को झूठ झूठ को सच ये साबित कर देते हैं |
साजिश साजिश खेली जाये नित इनके गलियारों में ||
अपने अपने कुनबे के यहाँ अपने अपने स्वार्थ हैं |
कुर्सी की यहाँ जंग छिड़ी है सत्ता के सरदारों में ||
हर किरदार में बदल मुखौटा रूप नया नित धरते हैं |
छुपी हुई है अम्ली बारिश इनकी प्रेम – फुहारों में ।।
इनके पास हुनर बहुत हैं जनता को बहलाने के |
सब्ज बाग़ की करें खेतियाँ अपने अपने नारों में ||
निर्धन के संग खाने पीने का ये ढोंग रचाते हैं |
ठाठ देखना इनके जब ये होते हैं सरकारों में ||
न जाने कब बदल लें झंडा अंधे हो निज स्वार्थ में |
न जाने कब बन जाएँ दुश्मन आज खड़े जो यारों में ||
— अशोक दर्द