रामायण कालीन राजनीतिक व्यवस्थायें
भारत में प्रायः महान व्यक्तित्वों को दैवीय रूप में प्रदर्शित करने की परंपरा रही है जिससे उनका पुण्यस्मरण तो स्थाई हो जाता है लेकिन उनके महान लौकिक कार्य ढक जाते हैं। श्रीराम भी इस राष्ट्र के ऐसे ही महानायक हैं। वह श्रेष्ठतम एवं आदर्श पुत्र, भ्राता, पति, मित्र,संवेदनशील परोपकारी ,धर्मज्ञ, सत्यनिष्ठ, जितेन्द्रिय , धैर्यवान ,गुरु, शिष्य, सेनानायक, एवं वीतराग राजा जैसे मानदंड स्थापित करने वाले इस राष्ट्र की शाश्वत स्मृति में मर्यादा पुरुषोत्तम बनकर स्थापित हो गए लेकिन राज्य सिंहासन पर आसीन होने के उपरांत सम्पूर्ण आर्यावर्त की एकता, अखंडता व सुरक्षा हेतु जो अद्भुत कार्य किये वह चर्चा में नहीं आते हैं जबकि आज उन्हें राजनीति व सैन्य विज्ञान की कक्षाओं में पढ़ाये जाने की अतीव आवश्यकता है।
राजनीति एवं युद्ध कौशल की चर्चा होते ही द्वापर के योगेश्वर श्रीकृष्ण की चपल छवि के कारण उनका कूटनीतिज्ञ स्वरुप जनमानस में स्थापित हो गया है। श्रीराम की सरल छवि के नीचे उनका श्रेष्ठ राजनीतिज्ञ रूप सर्वथा आच्छादित हो गया है।
वास्तविकता तो यह है दोनों ही युगपुरुष अपने २ देश ,काल एवं परिस्तिथियों के अनुसार तात्कालीन सर्वश्रेष्ठ कूटनीतिज्ञ तथा लगभग एक जैसी कार्यशैली के अनुपालक थे। उनकी कार्यशैली की समानता निम्न चार सिद्धांतों पर स्पष्ट रूप से आधारित दृष्टिगोचर होती है।
१. युद्ध शत्रु के ही क्षेत्र में लड़ना
२. सैन्य प्रयोग के लिए उचित अवसर की प्रतीक्षा करना
३. युद्ध से पूर्व शत्रुपक्ष में छिद्र कर अपने समर्थक उत्पन्न करना
४. न्यूनतम बलप्रयोग द्वारा अधिकतम परिणाम लेने का प्रयास करना।
सम्पूर्ण रामायण का विश्लेषणात्मक अध्ययन हमें उनके समस्त अभियानों में उपरोक्त सिद्धान्तों के प्रभाव का स्पष्ट दर्शन कराता है। आईये हम कतिपय घटनाओ के आधार पर इस विषय की विवेचना करते है।
हम पाते है की श्रीराम का राजनैतिक व सैन्यजीवन का प्रारंभ लगभग सोलह वर्ष की आयु में ही हो गया जब मुनि विश्वामित्र उन्हें उनके पिता महाराज दशरथ से राक्षसों के वध हेतु मांगकर ले गए थे।
१. सिद्धाश्रम (आज का बक्सर) अभियान:-
उनके जीवन का प्रथम अभियान था विश्वामित्र के सिद्धाश्रम के समीप स्थित रावण के सैनिक चौकियों के विरुद्ध जिसका नेतृत्व यक्षिणी ताड़का कर रही थी जो स्वयं राक्षस सुन्द के लव-जिहाद सरीखे जाल में फंसकर ‘रक्ष धर्म’ में धर्मांतरण के बाद उससे उत्पन्न पुत्र मारीच और सुबाहु के सहयोग से उस क्षेत्र के आर्यों को तेजी से रक्षधर्म में धर्मांतरित कर रही थी ।
हमारी संस्कृति में स्त्री को अवध्या जानकर श्रीराम के मन के द्वन्द का मुनिश्री द्वारा धर्म की सूक्ष्म व्याख्या द्वारा समाधान , उनका राजधर्म का पहिला पाठ था। नरमांस भक्षण, स्त्रीअपहरण व बलात्कार, लूट और शोषण के विरुद्ध उस क्षेत्र में मुनि विश्वामित्र के नेतृत्व में जनाक्रोश पहले से एकत्रित था और आवश्यकता थी केवल न्याय के लिये अधिकृत नेतृत्व की जो श्री राम ने उन्हें प्रदान किया। सम्पूर्ण जनपद में राक्षसों को समाप्त कर उस क्षेत्र में व्याप्त आतंकवाद का उन्मूलन कर, दुष्टो को भय व् सज्जनो को निर्भय कर राजधर्म का अभूतपूर्व उदाहरण प्रस्तुत किया।
२. अहिल्योद्धार प्रसंग
मुनि विश्वामित्र द्वारा मिथिला की ओर ले जाए जाते हुए मार्ग में महर्षि गौतम के निर्जन आश्रम में परित्यक्ता तपस्विनी देवी अहिल्या के दर्शन कर, उनके चरण स्पर्श कर आशीर्वाद मांगना, समाज में न्याय व्यवस्था को पुनर्प्रतिष्ठित करने का राजसत्ता की और से प्रयास का श्रेष्ठ उदाहरण है। समुचित न्याय न मिल पाने के कारण जड़वत हो गयी एक महिला को उसका सम्मान लौटा देने से स्त्री समाज के स्वाभिमान की रक्षा की।
३. मिथिला में धनुष यज्ञ
अपने अतुलनीय पराक्रम, विनम्रता व् अत्याकर्षक व्यक्तित्व के कारण मिथिला नरेश, राजपरिवार व् प्रजाजनों के लिए आशा का केंद्र बन गए श्रीराम ने मुनि विश्वामित्र के विश्वास पर पूरा उतरते हुए महाराज जनक की प्रतिज्ञा को पूर्ण कर एक ऐसे विवाह का मार्ग प्रशस्त कर दिया जो समाज के लिए तो रोमांच का विषय था ही, आर्यावर्त की तात्कालीन राजनैतिक परिस्थितियों को सशक्त करने का अत्यंत दूरगामी माध्यम सिद्ध हुआ। अवध व् मिथिला राज्य की स्थाई एवं सुदृढ मैत्री , कालांतर में श्रीराम की दक्षिण भारत में दिग्विजय का आधार बनी।
इतना ही नहीं , उस काल में राजसत्ता पर धर्मसत्ता का आधिपत्य कितना अधिक था की मुनि विश्वामित्र स्वविवेक के आधार पर ही राम तथा लक्ष्मण को मिथिला ले जाने का निर्णय कर लेते है,अवध के सभी युवराजों का विवाह भी निश्चित कर देते है और महाराज दशरथ की सम्मति अथवा अनुमति की आवश्यकता भी नहीं अनुभव करते है। सूचना पाकर अवध नरेश केवल बारात लेकर आशीर्वाद देने आते है।
राष्ट्रहित में ऋषि मुनि ही इस प्रकार के राजनितिक निर्णय ले लेते थे और राजसत्ता केवल उनके परामर्श को आदेश रूप में स्वीकार करती थी।
४. परशुराम प्रसंग
ब्राह्मण कुल में उत्पन्न महर्षि परशुराम क्षत्रिय वर्ण धारण कर जब विवाह उपरांत मार्ग में बारात को रोक कर अत्यंत अपमानजनक व्यव्हार भी करते है तो श्रीराम उनको प्रत्युत्तर में अत्यंत शालीनतापूर्वक अपने पराक्रम का प्रमाण प्रस्तुत कर संतुष्ट करते है। उनकी कीर्ति विनष्ट करके भी अपने प्रत्यंचा पर चढ़े बाण का उनके चरणों की और संधान करके उनके प्रति सम्मान प्रदर्शित करना उस काल में ब्राह्मण समाज की निर्विवाद प्रतिष्ठा का प्रमाण है। श्रीराम अवध के भावी नरेश के रूप में समाज में प्रचलित वैदिक मान्यताओं का सम्मान कर एक अत्यंत कुशल राजनीतिज्ञ होने का प्रमाण प्रस्तुत करते है
५ . राज्याभिषेक एवं वनवास प्रसंग
महाराज दशरथ चक्रवर्ती सम्राट होते हुए भी, राज्य में व्याप्त अराजकता पर अंकुश लगाने में असमर्थ, एक दुर्बल शासक सिद्ध हो रहे थे। युवराज भरत व् शत्रुघ्न की अनुपस्थिति में ही, मोह वश राम का राज्याभिषेक करने का अव्यवहारिक निर्णय लेकर परिवार में विद्रोह की स्थिति उत्पन्न करने का कारण बनते है। महारानी कैकेयी का एक अद्वितीय योद्धा भी व् राजकार्य में प्रवीण होना उस काल की स्त्रियों की राजनीती में सहभागिता का अनुपम उदाहरण है। युद्ध में महाराज की प्राणरक्षा करने के पुरस्कार स्वरुप प्राप्त दो वर का कितना विलक्षण उपयोग वह करती है ऐसा कोई दूसरा उदाहरण परवर्ती इतिहास में देखने में नहीं आता है।
अयोध्या में इस ‘ प्रीति व् नीति ‘ के घमासान में महारानी कैकेयी, समस्त अपयश स्वीकार करके भी राष्ट्र व् समाज धर्म की रक्षा को व्यक्तिगत एवं पारिवारिक धर्म से ऊपर वरीयता देकर, अनीति से बचाने हेतु, चट्टान बनकर, संपूर्ण रामायण की जननी बन सदा के लिए स्वयं भी व् श्रीराम को भी अमर कर गयी। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण ने इसका वर्णन इन अत्यंत मार्मिक शब्दों में किया है :-
“ युग युग में चलती रहे यह कठोर कहानी , रघुकुल में भी थी एक अभागिन रानी “
श्रीराम भी अद्वितीय राजधर्म का पालन करते हुए, परिवार में विद्रोह की संभावना को समाप्त करने तथा पिता के भी सम्मान को सुरक्षित करने हेतु, सहर्ष वनवास को माता कौशल्या के सम्मुख इन स्वर्णिम शब्दों में स्वीकार कर इतिहास में ‘भूतो न भविष्यति ‘ स्थान बनाते है:-
“ पिता दीन्हि मोहि कानन राजू। जँह सब भांति मोर बड़ काजू। “ .
भाई भरत पर अटूट विश्वास व् लक्ष्मण पर पूर्ण अधिकार का प्रयोग कर राज परिवार में सब प्रकार समाधान पूर्ण व्यवहार कर अत्यंत कुशल राजनीतिज्ञ होने का परिचय देते है।
६ . वर्णाश्रम व्यवस्था में सामाजिक समानता की स्थापना
वनगमन के प्रारम्भ में ही गंगा नदी पार करने हेतु राम ने श्रंगवेरपुर के निषादराज गुह से प्रत्यक्ष आलिंगन कर मैत्री,स्वतंत्रता व समानता के संबंध स्थापित किये और यह विशाल क्षेत्र में फैली, निम्नवर्ण मानी जाने वाली स्वाभिमानी जाति सदैव के लिये अवध राज्य के प्रति श्रद्धावनत हो गई। समाज के चारो वर्ण ‘आर्य ‘ ही होते है और उनमे कोई भी छोटा बड़ा नहीं होता, अस्पृश्य नहीं होता ,यह उनका आचरण राजसत्ता द्वारा स्वयं स्थापित आदर्श था। सामाजिक समरसता ही राजनितिक सम्बन्धो को सुदृढ़ कर एक अजेय शक्ति का निर्माण करती है
७ . वनवास की अवधि में दक्षिण दिशा की ओर अभियान:-
अपने पिता दशरथ द्वारा दक्षिण में शंबर के नेतृत्व में असुरों के विरुद्ध उन के सैन्य अभियान की असफलता से राम ने वन्य जाति बहुल क्षेत्रों राजकीय सैन्य अभियान की निरर्थकता को समझ लिया था. इसीलिए चित्रकूट और दंडकारण्य में राम ने वन्य जातियों यथा शबर, भील, कोल आदि के बीच में उन्हीं जैसा जीवन जीते हुये इन जातियों का संगठन किया, उनमें जीवन सुधार व सैन्यप्रशिक्षण द्वारा नैतिकता व आत्मविश्वास का संचार किया। राजनितिक दृष्टि से भी उनका यह हृदयग्राही आचरण अवध राज्य को प्रत्यक्ष रूप से मैत्रीपूर्ण सामरिक सामर्थ्य प्रदान करने में सहायक सिद्ध हुआ।
चित्रकूट
चित्रकूट में भरत मिलाप के अवसर पर स्थानीय वन्यजनो द्वारा अवधवासियो का आत्मीयतापूर्ण भाव भीना स्वागत व् सेवा इस तथ्य की पुष्टि करता है। नगरों में सम्मान मिलता है पर वनवासियों में श्रद्धा मिलती है। संग्रह से संतुष्टि हो सकती है पर तृप्ति तो त्याग से ही संभव है यह देखने को मिलता है।
भाई भरत को पिता के प्रति अपनी व् उसकी कर्त्तव्य भावना का उपदेश तथा अयोध्या में राज्य व् प्रजा के प्रति उसका राजधर्म अनुसार दायित्व का विशद परामर्श ही वस्तुतः भविष्य के “ राम-राज्य “ की भूमिका है।
निशिचर विहीन करने की प्रतिज्ञा
दंडकारण्य में राक्षसों के आतंक से पीड़ित ऋषि मुनियों के निवेदन पर श्रीराम ने ऋषि सुतीक्ष्ण के समक्ष समस्त जनपद को निशिचर विहीन करने की प्रतिज्ञा कर सारे प्रजाजनों को सम्मोहित कर दिया। अर्धांगिनी सीता के आपत्ति करने पर श्रीराम उन्हें क्षात्र-धर्म के मर्म समझा कर संतुष्ट कर देते है। धर्म व् अधर्म की सूक्ष्म व्याख्या अद्भुत है तथा श्रीराम का राजधर्म मर्मज्ञ होने व् तदनुसार राजनीतिक कदम उठाने की पुष्टि करती है
शूर्पणखा प्रसंग
शूर्पणखा प्रसंग से अपने समर्थकों व् श्रध्दालु प्रजाजनों में अपने चरित्र के प्रति अगाध विश्वास उत्पन्न किया।
सम्यक रणनीति द्वारा खर दूषण को अपने अनुकूल भूगोल में युद्ध करने के लिये उकसाया और दंडकवन में रावण की सैन्य उपस्थिति को समूल नष्ट कर दिया।
सीताहरण जैसी विपत्ति को राजनितिक दृष्टि से अवसर में बदलना
निरंतर असुरो का वध रावण को सीधी चुनौती देता ही आरहा था एवं श्रीराम को किसी अनिष्ट की स्पष्ट सम्भावना का आभास था जो अंततः असावधानीवश सीताहरण के रूप में सामने आगया। इस भयंकर विपत्ति को उन्होने अत्यंत ही धैर्यपूर्वक राजनीतिक उपयोग के अवसर में परिणित कर दिया। जिस आतंक के सरगना रावण को अभी तक चुनौती देते आरहे थे अब उसने स्वयं ही युद्ध के लिए प्रत्यक्ष आमंत्रण दे दिया था। वनगमन की सुविचारित योजना की पूर्णता का अवसर निकट ही जानकर श्रीराम वानर राज्य से मैत्री कर एक अतुलनीय सैन्यशक्ति का अति कुशलता पूर्वक संयोजन करते है।
उनके द्वारा मारे गए राक्षस कबंध से मरते मरते उन्हें समान विपत्ति से ग्रस्त सुग्रीव को मिलकर संधि करने का परामर्श उचित मानकर तदनुसार ही उसे खोजने का उद्यम कर विपत्ति में भी शुन्य से सृष्टि निर्माण करने का कौशल प्रदर्शित किया।
शबरी प्रसंग
शबर अर्थात बहेलिया जाति में तथाकथित निम्नकुल में उत्पन्न तपस्विनी शबरी के आश्रम में स्वयं जाकर उसे कृतार्थ करना श्रीराम की प्रजावत्सलता का अनुपम उदहारण है। राजसत्ता जब स्वयं समाज के अंतिम व्यक्ति तक चलकर पहुँचती है तो घोर असभ्य जंगली जातियों में से ही ऐसी अजेय शक्ति का निर्माण होता है जो नितांत साधनहीन राजा को भी सम्पूर्ण जनबल एवं सैन्य शक्ति से सुसज्जित कर रावण जैसे दुर्दांत शत्रु पर विजय प्राप्त करने का साधन बनती है।
किष्किंधा का वानर साम्राज्य
वानरों के संदर्भ में भी यही हुआ। उन्होंन दुर्बल परंतु पीड़ित सुग्रीव का पक्ष लिया जिससे उन्हें स्वतः ही सुग्रीव के प्रति सहानुभूति रखने वाली अधिसंख्य वानर प्रजा का नैतिक समर्थन प्राप्त हो गया जिसके कारण द्वंद्वयुद्ध के नियमों के विपरीत हस्तक्षेप कर बालि का वध करने पर भी वानर जाति ने उन्हें अपना मुक्तिदाता माना, आक्रांता नहीं।
बालि के पश्चात राम ने सुग्रीव का ही राज्याभिषेक कर अंगद को युवराज घोषित कर अभूतपूर्व राजनितिक सूझ -बुझ का परिचय दिया। राक्षसों के शोषण के विरुद्ध वानर जाति के आक्रोश को उभारा और सीता अनुसंधान के समय का सदुपयोग कर साथ साथ समस्त जानकारियां जुटाते रहे जिसका परिणाम था श्रीराम के नेतृत्व के प्रति असाधारण रूप से निष्ठावान सेना तथा हनुमान, जाम्बवान, नल, नील जैसे यूथपतियों की अगाध श्रद्धा निर्माण होकर विशाल वानर राज्य की स्थाई मैत्री उपलब्ध हो गयी
युवराज अंगद की निष्ठा पर आशंका रहित होने के लिए उसे लंका में रावण के दरबार में दूत के रूप में भेजकर जांच लिया गया। महारानी तारा को ही राजमहिषी घोषित कर सदा सदा के लिए निष्कंटक सम्बन्धो की भूमिका निर्माण कर दी।
विभीषण को शरणागति
लंका पर चढाई करने के पूर्व ही आकस्मिक रूप से विभीषण का आना व् श्रीराम द्वारा उसे “ आओ लंकेश …….. “ कहकर शरणागति देना एक अति कुशल राजनीतिज्ञ होने का प्रमाण है। सुग्रीव व् जामवंत आदि द्वारा अनुमोदन न करने पर भी हनुमान के संतुलित परामर्श पर इतना कठिन निर्णय लेना उनके आत्मविश्वास का द्योतक है।
लंका में विभीषण के विद्रोह व पलायन तथा उसे लंकापति के रूप में मान्यता देकर उन्होंने न केवल रावण की कमजोरियों को जान लिया बल्कि संधिप्रस्ताव भेजकर अपने व रावण दोंनों पक्षों में अपने नैतिक बल को मजबूत कर लिया और इसके बाद ही उन्होंने युद्ध प्रारंभ किया।
युद्ध के दौरान भी उन्होंने अपनी सतर्कता बनाये रखी और विभीषण को सुरक्षा के नैतिक उत्तरदायित्व का हवाला देकर सदैव केंद्र में अपने नजदीक रखा। क्या पता कब भाई के प्रति मोह जाग जाये?
लंका युद्ध कांड
जब विभीषण की सहायता से मेघनाद का वध हो गया तो उन्होंने विभीषण को रावण से टकराने की छूट दे दी क्योंकि अब रावण द्वारा विभीषण को पुनः अपनाने की सारी संभावनायें नष्ट हो चुकी थीं।
सुग्रीव के राज्याभिषेक के साथ साथ अंगद के युवराज्याभिषेक व अंगद के दूतकर्म के पश्चात विभीषण के प्रसंग में श्रीराम के चरम कूटनीतिक चातुर्य के दर्शन होते हैं और यह तीन प्रसंग ही उनके राजनैतिक व्यक्तित्व को स्पष्ट करने के लिये काफी हैं।
किष्किंधा व् लंका के मध्य सामंजस्य
लंका में विभीषण और दक्षिण भारत में सुग्रीव दोंनों उनकी मैत्रीपूर्ण अधीनता स्वीकार करते ही थे और दोंनों शक्तियों में विजित और विजेता संबंध का विवाद कभी भी उत्पन्न ना हो सके और दोंनों के मध्य संतुलन बना रहे इसके लिये विभीषण के गुप्त अनुरोध पर उन्होंने अपने ही बनाये रामसेतु को मध्य से इतना भंग करवा दिया कि वानर सेनायें कभी भी लंका पर और लंका निवासी राक्षस जो अब आर्य संस्कृति को स्वीकार कर चुके थे दक्षिण भारत पर आक्रमण ना कर सकें।
श्रीराम अभी अयोध्या लौट कर सिंहासनारूढ़ नहीं हुए हैं परन्तु अवध राज्य के अंतर्गत सम्पूर्ण आर्यावर्त में सभी मित्र राष्ट्रों में सदा सदा के लिए सामंजस्य बना रहे इस हेतु उनका यह अत्यंत दूरदृष्टिपूर्ण कदम एक चक्रवर्ती सम्राट के ही अनुकूल है।
सीताजी की अग्नि परीक्षा
लंका विजय के उपरांत, विभीषण व् लक्ष्मण द्वारा ससम्मान सीताजी को समस्त सेनाओं व् जनसमूह के मध्य बुलाकर उनकी सार्वजनिक रूप से अग्नि परीक्षा कराना, जहाँ अनेको वाममार्गियों को आलोचना करने का अवसर प्रदान करता है, वहीं उसका सूक्ष्म विश्लेषण हमें श्रीराम के सर्वश्रेष्ठ राजनीतिज्ञ होने का भी प्रमाण देता है। सीताजी को अग्नि में प्रवेश करने से अंतिम क्षण में रोककर उनकी यह घोषणा युगो युगों तक सीताजी की सच्चरित्रता का उद्घोष करती रहेगी :-
“ सीता मुझसे ऐसे ही अभिन्न है जैसे प्रभा सूर्य से। जैसे यशस्वी पुरुष अपनी कीर्ति को नहीं त्याग सकता मैं भी इन्हे नहीं त्याग सकता परन्तु यदि मैं इनकी शुद्धता की परीक्षा नहीं कराता तो समाज कभी भी इनकी सच्चरित्रता पर विश्वास न करता “
यह प्रसंग स्पष्ट घोषणा करता है की राजा का जीवन पूर्ण रूप से सार्वजनिक होता है , उसका कुछ भी व्यक्तिगत नहीं होता। वर्तमान काल में हमारे राजनेताओं को इस एकमात्र घटना से ही बहुत बड़ी सीख लेने की आवश्यकता है।
८. अयोध्या प्रवेश से पूर्व सतर्कता
वनवास से लौटने के पश्चात सीधे अयोध्या न जाकर भरद्वाज ऋषि के आश्रम में पहुंचना व् वहां से हनुमान को अयोध्या व भरत की मनःस्थिति को भांपने के लिये अग्रिम दूत के रूप में भेजना उनकी राजोचित सतर्कता का अनुपम उदाहरण है।
यद्यपि भाई भरत पर उन्हें अटूट विश्वास था पर १४ वर्ष की कालावधि में मानवीय स्वभाव एवं राजनितिक परिस्थितियों में कुछ भी बदलाव आने की संभावना से इंकार भी नहीं किया जा सकता। कोई भी अप्रत्याशित घटना के लिए पूर्ण सजगता बरतना एक राजनीति विशारद का ही लक्षण हो सकता है।
राज्याभिषेक का अनुपम दृश्य
अयोध्या में राज्याभिषेक का दृश्य अत्यंत ही विस्मयकारी व् नयनाभिराम है। माता सीता के साथ आर्य संस्कृति के अवध नरेश श्रीराम सिंहासन पर आरूढ़ है, एक ओर वानर संस्कृति के किष्किंधा नरेश सुग्रीव खड़े है, दूसरी ओर राक्षस संस्कृति के लंका नरेश विभीषण खड़े है , सम्मुख देव संस्कृति के मिथिला नरेश महाराज जनक आशीर्वाद की मुद्रा में विद्यमान है। क्या ही अद्भुत संगम है जहां समस्त आर्यावर्त की प्रमुख राजसत्ताएं प्रगाढ़ मैत्रीपूर्ण भाव के साथ विद्यमान है।
यह अविश्वसनीय संयोजन श्रीराम के अद्वितीय राजनितिक कौशल का ही सुपरिणाम के अतिरिक्त और क्या हो सकता है।
राम राज्य की स्थापना
श्रीराम ने एक ऐसे आदर्श राज्य की स्थापना की जिसकी युगों युगों से आजतक चर्चा होती आ रही है और जिसकी उपमा केवल “ राम – राज्य “ ही हो सकती है।
वाल्मीकि रामायण से उद्धृत एक श्लोक ही उसके वर्णन के लिए पर्याप्त होगा :
“ निरदस्युर भवललोको नानर्थम कश्चिदस्पृशत।
न च स्म वृद्धा बालानां प्रेतकार्याणि कुर्वते। “
डाकू लुटेरों का कही नाम नहीं था, कोई किसी के धन को स्पर्श भी नहीं करता था। अकाल मृत्यु नहीं होती थी, किसी वृद्ध ने किसी बालक का कभी मृतक संस्कार नहीं किया।
रामचरितमानस ने बहुत ही मनोहारी व् विस्तृत वर्णन किया है जिसके कुछ अंश उद्धृत करने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूँ। आईये देखते है :-
“बरनाश्रम निज निज धरम निरत बेद पथ लोग
चलहि सदा पावहि सुखहि नहीं भय सोक न रोग।
दैहिक दैविक भौतिक तापा , रामराज नहीं काहुहि व्यापा।
सब नर करहिं परस्पर प्रीती , चलहि स्वधर्म निरत श्रुति नीति। “
आज भी वर्तमान प्रजातान्त्रिक व्यवस्था में आदर्श राज्य की कल्पना ‘ राम राज्य ‘ के रूप में ही की जाती है। श्रीराम एक कुशल प्रशासक, प्रजावत्सल राजा व् राजधर्म के अनुसार निर्धारित राजनीती के विशारद के रूप हमारे सम्मुख आते है।
अवध साम्राज्य की सामरिक सुरक्षा व्यवस्था
केंद्र में अयोध्या चारों ओर से लक्ष्मणपुरी (लखनऊ), अंगदीयपुरी, कारूपथ, मथुरा और श्रंगवेरपुर द्वारा सुरक्षित थी।
इस प्रकार श्रीराम ने अयोध्या साम्राज्य को दोहरी सुरक्षापंक्ति से घेर दिया। साम्राज्य के रूप में भारत का राजनैतिक संगठन पूराकर उन्होंने इस राष्ट्र को एक बार फिर एकीकृत कर राजनैतिक स्थिरता की नींव डाली।
स्वयं के प्रभार वाली सदृढ़ गुप्तचर व्यवस्था, शत्रुघ्न के सेनापतित्व में विशाल शक्तिशाली सेना, लक्ष्मण के प्रभार में उदार परंतु सचेत निगरानी वाले आर्थिक तंत्र, द्वारा श्रीराम ने उस प्रशासनिक व्यवस्था की स्थापना की, जिसे इतिहास में एक ऐसे मानक के रूप में देखा गया जो अब तक रामराज्य के रूप में अविस्मरणीय बना हुआ है।
— आर्य रविदेव गुप्त