सृजन का नव दीप
सृजन का नव दीप जलाकर
निरुत्साह के तिमिर को भगाती रहूँ
साहस के सिन्धु से माँ शारदे
काव्य सागर में डुबकियाँ लगाती रहूँ
प्रेरणा दिलों में जाग्रत करना
उर में प्राण का संचार कर
नित नई बाधाओं को पारकर
मान का पाठ मैं सदा पढ़ाती रहूँ
नफ़रतों से दूर रखना मुझे
प्रेम की बहती अविरल धारा में
पुष्प ज्ञान के अंजलि में भरकर
माँ प्रीत का अलख मैं जगाती रहूँ
— वर्षा वार्ष्णेय