कृपादृष्टि
घड़ा अत्यंत विकल था. कितने सुकून से मिट्टी के रूप में धरती मां की गोद में मस्त था. फिर एक दिन एक कुम्हार ने फावड़ा मार-मारकर उसको खोदा, गधे पर लादा, रौंदा, पानी डालकर गूंथा, चाक पर चढ़ाकर तेजी से घुमाया, फिर गला काटा, थापी मार-मारकर बराबर किया, जलने के लिए आंवे के अंदर आग में झोंक दिया. इतने कष्ट सहकर बाहर निकला तो गधे पर लादकर उसे बाजार में भेज दिया. वहां भी लोग ठोक-ठोककर देख रहे थे कि ठीक है कि नहीं? ठोकने-पीटने के बाद कीमत लगायी भी तो क्या, बस चंद रुपये!
“हे ईश्वर सारे अन्याय मेरे ही साथ करना था. रोज एक नया कष्ट एक नई पीड़ा देते हो, मेरे साथ बस अन्याय-ही-अन्याय होना लिखा है.” विकल घड़े की दृष्टि में विकलता थी.
तभी उसे संतों की एक सभा के लिए खरीदा गया और उसमें संतों के पीने के लिए पवित्र गंगाजल भरकर रखा गया.
कुम्हार द्वारा खोदने, गधे पर लादने, रौंदने, गूंथने, चाक पर चढ़ाकर तेजी से घुमाने, गला काटने, थापी मार-मारकर बराबर करने, आंवे के अंदर आग में झोंकने की विकलता अब उसे कुम्हार की कृपादृष्टि लग रही थी!
— लीला तिवानी