क्या कहूँ तुझको प्रिये
जब भी जाऊँ ऑफिस तो
ध्यान रहता है बस उधर,
कब बजे दोपहर के डेढ़
निकालूँ कब अपनी मैं टिफिन।
भूख की नहीं है कोई तड़प
बस तीन डिब्बों में दिखता
मेरे अपनों का स्नेह दुलार
बहन माँ भार्या देती जब टिफिन,
हो जाता मन भाव विभोर।
चाहे ठिठुरन भरी हो ठंड
या फिर झुलसती गर्मी
पर जब तैयार करती वो टिफिन
तब मौसम नहीं होता हावी।
पुत्र, पुत्री,भाई, पति का प्रेम
सेहत ही होता प्रमुख।
कैसे बंध जाती यह डोर
कैसे कोई देता इन्हें तोड़
एहसान भी नहीं ज़ताती
बस वो अपना फर्ज निभाती।
जब आता हूँ लौट कर घर
खुशियाँ तैर जाति उनके चेहरे पर,
हाथों से लेती वह टिफन का डब्बा
खोल कर देखती झाँकती
कहीं कोई खाना तो नहीं छूटा।
जब पाती वो डब्बा खाली
चेहरे पर मुस्कान तैर जाती
महसूस करता हूँ उनकी भावनाएँ
मन ही मन प्रभु की लेता बलाएँ
कितना मोहक यह रिश्ता बनाए
खुशी से बाँछे मेरी खिल जाए
दूर करें ईश्वर अपशकुन सारे
इन्हें किसी की नजर ना लग जाए|
— सविता सिंह मीरा